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आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
प्रश्नकर्ता : हाँ। इसलिए फिर उस संग्राम के समय 'दादा' को साक्षी रखते हैं, 'दादा' का अवलंबन आने के बाद शुद्धात्मा का अवलंबन आए तो ठीक रहता है।
दादाश्री : 'दादा' का अवलंबन ले न, तो वह जो निरालंब दशा है, वह हमें निरालंब बनाती है इसलिए हम कहते हैं न कि दादा का अवलंबन लो। 'शुद्धात्मा' निरालंब नहीं है, वह तो आपके लिए हेल्पफुल है। अत: और कुछ नहीं आए और सिर्फ 'दादा' का निदिध्यासन किया जाए न तो उसमें सबकुछ आ जाएगा। बाकी तो, अभी इंसान कितना करे !
प्रश्नकर्ता : लेकिन दादा, इस संग्राम में हमारी हार होती रहती है और हम पीछे रह जाते हैं।
दादाश्री : आप हार मान सकते हैं लेकिन हम तो ऐसा नहीं कर सकते। हमारा तो ऐसा है न, 'इस संग्राम में चाहे कैसा भी पुद्गल हो, फिर भी वह न्यूट्रल हैं और यह चेतन है'।
मैंने आपको शुद्धात्मा कहा है न, वह भी मूल आत्मा नहीं है। यह तो आपकी संज्ञा है। आप जब भी वह बोलते हो तब वहाँ चिठ्ठी पहुँच जाती है।
ज़रा सा ही दूर है राजमहल लेकिन आपको अंदर सावधान करता है या नहीं? प्रश्नकर्ता : सावधान करता है।
दादाश्री : वही आत्मा है! अब दूसरा और कौन सा आत्मा? बाकी, आपको कोई लेना-देना नहीं है। पहले सावधान करता था क्या? हं... तो वह आत्मा है। अभी अगर मेरी पैसे कमाने की बात आए न तो भी अंदर सावधान करता है कि भाई... और पहले सावधान नहीं करता था पैसे कमाने की बात में। अतः आत्मा हाज़िर है, पूरे दिन हाज़िर है।
प्रश्नकर्ता : मूल आत्मा तो कुछ और ही है जो कि शब्दों से परे
है