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आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
अब आत्मा को समझ लेना एक बार। जिसे कभी भी दुःख स्पर्श ही नहीं करता, वह 'तू' है। इस दुनिया की कोई भी स्थिति ऐसी नहीं है कि जिसमें तुझे दुःख स्पर्श कर सके। भले ही फाँसी की सजा हो जाए फिर भी तुझ पर असर नहीं होगा, 'तू' वह है और अगर उस 'तू' तक पहुँच गया तो फिर कुछ भी करना बाकी नहीं रहेगा!
उस 'प्रकट' को मैंने देखा हैं और उसे मैं आपमें देख सकता हूँ। आपको दिखाए भी हैं लेकिन आपको जितना आपकी भाषा में हैं उतना ही समझ में आएगा। शब्द से आप देख सकते हो लेकिन मूल स्वरूप को नहीं देख सकते, निरालंब स्वरूप को नहीं देख सकते। अभी यह 'शुद्धात्मा' आपका मूल स्वरूप इस शब्द से है।
हमने निरालंब स्वरूप को पकड़ा हुआ है यानी कि जगत् की कोई चीज़ हमें स्पर्श नहीं करती, बाधक नहीं है। अर्थात् हम उस स्थिति में बैठे हैं, निरालंब। वह स्थिति अर्थात् हमें तो किसी भी जगह पर मतभेद नहीं रहता, कुछ भी नहीं रहता न क्योंकि कोई अवलंबन स्पर्श ही नहीं करता न! हमारी दशा है, निरालंब!! अर्थात् हम समझ सकते हैं कि हम यदि अभी इस दशा में भी निरालंब रह सकते हैं तो वीतराग कितने निरालंब रहते होंगे?
प्रश्नकर्ता : आप तो निरालंबी हैं।
दादाश्री : निरालंबी तो अंदर वाला आत्मा है लेकिन मुझे इनका (मूल भगवान का) सहारा तो है न जबकि मूल आत्मा निरालंबी है। हम निरालंबी हुए हैं इसलिए भगवान हमारे वश में हो गए हैं, वर्ना वश में हो ही नहीं पाते न! जब तक किसी भी चीज़ का अवलंबन है तब तक भगवान वश नहीं हो सकते।
सभी में 'मैं' को ही देखे, वह स्पीडीली 'मैं शुद्धात्मा हूँ, मैं शुद्धात्मा हूँ' वह आत्मा है तो सही लेकिन वह तो प्रवेश द्वार कहलाएगा। अभी तो प्रवेश किया है मोक्षमार्ग में। मुक्ति