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आप्तवाणी - १३ (उत्तरार्ध)
दादाश्री : हमने कहा है वैसा करो तो फिर आत्मा उसमें रहेगा । आत्मा यदि आत्मा में आ गया न तो मुक्त, वर्ना कहेगा, 'मेरे पास यह है और वह है और वही आधार !' आधार । किसका आधार रखता है ? जो 2-5 लाख रुपये हैं, उनका ।
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प्रश्नकर्ता : नहीं और कोई बात नहीं है, इतना भय रहता है कि सभी लोगों ने खाया ही है । जहाँ भरोसा रखता हूँ, सभी जगह लोग खा जाते हैं। अब मुझमें ऐसा भय घुस गया है । उम्र बढ़ रही है, बाकी अंदर कोई ममता नहीं है।
दादाश्री : भय घुस जाता है क्योंकि 'इसका क्या करूँगा?' वह तो मैं उसी दिन समझ गया था लेकिन मैंने कहा धीरे से निकालूँगा ।
प्रश्नकर्ता : बीमारी आई न तो डेढ़ लाख रुपये का खर्चा हो गया था, तभी खर्च किए वर्ना और कौन देखता ?
दादाश्री : नहीं, नहीं। हम जो ऐसा मानते हैं न कि जो देखने वाला है, वह मेरा देखेगा, लेकिन अंत में वह भी गलत साबित होता है, दगा साबित होता है। अतः सब से बड़ी बात यही है कि दे दो सब भगवान के घर में। फिर सारी ज़िम्मेदारी दादा की । मैंने अपने पास चार आने भी नहीं रखे हैं। सभी पैसे यहाँ पर रख देने हैं, सभी कुछ ! और भविष्य में जो आएगा वह भी यहीं पर । हमारी 'माताजी' की ज़मीन के पैसे आने वाले हैं, वह भी यहीं पर रख दूँगा । मुझे कुछ भी नहीं चाहिए । मुझे किसलिए ? अमरीका वाले गाड़ी देना चाहते हैं। मैं क्यों लूँ? लेकिन यह ज़रा बैठक की जगह रखी तो मैं, आत्मा और बैठक, तीन हुए। वर्ना मैं और आत्मा एक ही । अर्थात् यह 'मैं' समर्पित हो गया।
प्रश्नकर्ता : ‘मैं' समर्पित हो गया अर्थात् बैठक निकाल दी, तो 'मैं' आत्मा में आ जाएगा ?
दादाश्री : नीरू बहन तुरंत काम भी करने लगे हैं और ये जो अभी मेरी आज्ञा के अनुसार सभी नियमों का पालन कर रही हैं, वह पूरी प्रकृति को तोड़ देगा। मुझे संतोष हो गया !