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आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
सकता। देह के आधार का ठिकाना नहीं है, न जाने देह कब कमज़ोर पड़ जाए! समझदार इंसान न जाने कब पागल हो जाए, वह कहा नहीं जा सकता। आज बहुत ही समझदार माना जाता हो लेकिन अगले साल वह पागल हो जाता है। किसी आधार की ज़रूरत तो पड़ेगी या नहीं? वह भी, स्थायी आधार! आधार ऐसा होना चाहिए कि वह फिर हट न जाए।
यह तकिया है न, मैं इस पर सोया हूँ तो मुझे विश्वास है कि वह गिर नहीं जाएगा लेकिन ये बच्चे, वाइफ, इन पर कभी तकिए की तरह सिर रखें तो गिर सकते हैं क्योंकि वह सच्चा आधार नहीं है। यह दीवार तो कुछ समय के लिए टिकाऊ है। वह कुछ समय बाद यों गिर नहीं जाएगी, विश्वास तो रहता है न कि दबाएँगे तो कोई परेशानी नहीं आएगी। जबकि रिश्तें दबाते ही नीचे गिर जाते हैं।
अतः अब इन हिंदुस्तान के लोगों को अंदर के आधार की ज़रूरत हैं। बाकी बाहर के लोगों को आधार की ज़रूरत नहीं हैं क्योंकि वे सहजभाव से जी रहे हैं। सहज! उन्हें कोई विकल्प नहीं आते। उनके लिए आधार या निराधार जैसा कुछ है ही नहीं, पत्नी के साथ मतभेद हुआ कि डिवॉर्स! वह अलग हो जाती है! दूसरी ले आता है वापस। उसे समाज का कोई डर या भय ऐसा कुछ भी नहीं है, समाज का बंधन नहीं है।
___अब जब शुद्धात्मा का आधार है न, मान लो वह तो जब से मिला तभी से मोक्ष जाना तय हो गया। उसे पासपॉर्ट मिल गया है, वीज़ा मिल गया है, सभी कुछ मिल गया। अगर वह वापस न चला जाए, यदि वह खुद आज्ञा में रहेगा तो? लेकिन फिर भी इसमें शब्दों का आधार है। फिर उसमें से भी निरालंब होना है।
चल भाई, निजघर में आज इंगलिश चाय पी फिर भी मुँह में पिपरमिंट डालनी पड़ी। तो भाई फिर चाय क्यों पी कि पिपरमिंट की ज़रूरत पड़ी? इस तरह से