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आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
आपका इन शब्दों का अवलंबन चला जाएगा उसके लिए इन पाँच आज्ञा का पालन करो, तो धीरे-धीरे दर्शन दिखता जाएगा। दिखते-दिखतेदिखते खुद के सेल्फ में ही अनुभव रहेगा। उसके बाद शब्दों की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। इस प्रकार 'शॉर्ट कट' में तो आ गए न?
प्रश्नकर्ता : एकदम 'शॉर्ट कट' में आ गए, हं।
दादाश्री : नहीं तो दादा के पीछे पड़ना पड़ेगा, महीने-दो महीने। अगर सिर्फ पैसों के पीछे पड़े रहोगे तो फिर दादा रोज़ नहीं मिलेंगे।
प्रश्नकर्ता : दादा के ही पीछे पड़ना है।
दादाश्री : थोड़े बहुत दादा के पीछे पड़ेंगे तो आपका सारा एडजस्टमेन्ट ठीक हो जाएगा। फिर ऐसा कुछ हमेशा के लिए ज़रूरी नहीं है। यह हमेशा के लिए नहीं है। यह हमेशा के लिए पड़े रहने की जगह नहीं है। इस काल में तो ऐसा किसी इंसान से हो ही नहीं सकता कि हमेशा पड़ा रह सके। बिल्कुल लफड़े वाला काल है।
अंत में अनुभव और अनुभवी एक ही प्रश्नकर्ता : शुद्धात्मा अवलंबन है। यदि वह न होता तो निरालंब भी नहीं होता लेकिन आत्मा शब्द तो एक संज्ञा ही है न?!
दादाश्री : ऐसा है न इस शब्द का आलंबन लेकर यह रास्ता है, सीढ़ी है। सीढ़ी चढ़ते-चढ़ते जब ऊपर पहुँचेंगे तब प्राप्त होगा। शुद्धात्मा करते-करते जैसे-जैसे अनुभव होता जाएगा तब फिर उस अनुभव का भाग रहेगा। उसके बाद शुद्धात्मा शब्द खत्म हो जाएगा। वह निरालंब कहलाता है।
प्रश्नकर्ता : लेकिन लोगों को आप जो ज्ञान देते हैं, क्या उससे मूल आत्मा प्राप्त हो जाता है?
दादाश्री : वह जो आत्मा का अनुभव रहता है न, वही मूल आत्मा है लेकिन जैसे-जैसे वह अनुभव एक जगह पर इकट्ठा होते-होते मूल