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[६] निरालंब
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दादाश्री : नहीं चलता।
प्रश्नकर्ता : वे ऐसा कहते हैं कि 'मैं बिना अवलंबन के नहीं जी सकूँगा। एक नहीं तो दूसरा अवलंबन चाहिए ही'।
दादाश्री : यदि ज्ञान नहीं होता तो कोई आलंबन रहित हो ही नहीं सकता था। यह तो ऐसा है कि अगर रात को घर पर कोई न हो तो भी मन में परेशानी होती रहती है।
प्रश्नकर्ता : इसलिए फिर दूसरे अवलंबन के पास जाता है। दादाश्री : अवलंबन बदलता है।
प्रश्नकर्ता : वे दूसरे लोग क्या कहते हैं ? आ जा, मैं कुछ कर दूंगा।
दादाश्री : अरे ! जितने चाहो उतने अवलंबन। इसलिए वह अवलंबन बदलता रहता है। नहीं तो फिर कहता है 'मैं तो मर गया रे'। इस प्रकार से अवलंबन लेता है। अरे, तो क्या उससे ठीक हो गया? मत कहना भाई! फिर भी कहता है इसलिए शांत नहीं होता।
प्रश्नकर्ता : उसे खुद को सांत्वना रहती है, सांत्वना।
दादाश्री : कैसी सांत्वना रहती है ? उतर गया। जितना ऊपर चढ़ा था, वह डेवेलपमेन्ट था। वह डेवेलपमेन्ट कम हो गया। अरे, लेकिन जीते जी मर गया!
प्रश्नकर्ता : अवलंबन से जीकर भी उसके जीवन में क्या बदलाव दिखाई दिया? आप कहते हैं कि अवलंबन से जीने वाला व्यक्ति मृत समान है।
दादाश्री : फिर भी यह पूरी दुनिया जी ही रही है न! लेकिन यह पूरी दुनिया, साधु-संन्यासी, आचार्य सब अवलंबन से ही जी रहे हैं। अवलंबन के बिना तो कुछ भी नहीं हो सकता न? सत् निरालंब वस्तु है। वहाँ अगर अवलंबन लेकर ढूँढने जाएगा तो किस प्रकार मिलेगा?