________________
[६] निरालंब
३२७
निकलता ही नहीं हूँ। अभी भी मेरी समाधि निरंतर चलती रहती है। मैं यह अंबालाल पटेल नहीं हूँ, मैं यह अहंकार नहीं हूँ, मैं यह चित्त भी नहीं हूँ, मैं इन सभी चीज़ों के उस पार हूँ। मैं शुद्धात्मा भी नहीं हूँ। शुद्धात्मा तो ये जो लोग बने हैं, वे हैं। मैं तो शब्द रूप भी नहीं हूँ। मैं दरअसल स्वरूप में हूँ, निरालंब स्वरूप में हूँ लेकिन अभी चार डिग्री की कमी है, जो मेरी अभी तक पूरी नहीं हुई हैं। तब तक मेरी क्या इच्छा है ? मैंने जो यह सुख प्राप्त किया है वैसा सुख लोग भी प्राप्त करें, इतनी ही इच्छा बची है।
प्रश्नकर्ता : जो कहने वाले रहे और जिन्होंने निरालंब की बातें की हैं, वे समझ में नहीं आतीं।
दादाश्री : ना, वे समझ में आएँगी ही नहीं न! वह तो जब बहुत सालों तक मेरे साथ बैठे रहोगे, तब कुछ समझ में आएगा। निरालंब की तरफ तो जगत् हज़ारों साल से पहुँचा ही नहीं है। प्रश्नकर्ता : नहीं पहुँचा है। यह नई बात है दादा।
मैं ही भगवान हूँ, वह निरालंब! दादाश्री : खुद खुद के ही कान में देख सके, ऐसा कोई साधन नहीं है। खुद खुद का ही चेहरा देख सके, ऐसा कोई साधन नहीं है?
प्रश्नकर्ता : ना, नहीं है। दादाश्री : अवलंबन परावलंबन वाला है।
जहाँ अवलंबन लिए हों, वहाँ से यदि सभी अवलंबन हट जाएँ तो क्या होगा? अतः वीतराग विज्ञान, भगवान महावीर क्या कहते हैं कि निरालंब, जहाँ किसी अवलंबन की ज़रूरत नहीं है, वही संपूर्ण स्वतंत्रता है। हमने निरालंब का वह सुख चखा है और निरालंब का अनुभव हो चुका है।
प्रश्नकर्ता : लोग उसे ढूँढने के लिए अवलंबन का प्रयत्न करते हैं।