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आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
इतना ही देख लेना है कि अटैक नहीं होता न और जब अटैक होने लगे तब मुझसे कह देना कि मुझे अटैक करने के विचार आ रहे हैं। वे विचार भले ही आएँ लेकिन वह तेरा खुद का अटैक नहीं है न? तो कहता है, 'नहीं, नहीं है'। तो फिर कोई बात नहीं।
शास्त्र कहते हैं कि अगर तेरे भाव में अटैक नहीं है तो तू महावीर ही है। जब से मेरे अटैक बंद हो गए, तभी से मैं अपने आपको महावीर ही मानता था। बस इतना ही कि मैं कहता नहीं था। 'जो भगवान ने बताया है, यह वही चीज़ होगी', मेरे पास अन्य कोई चीज़ ढूँढने को रहा ही नहीं। इस दुनिया में ऐसा व्यक्ति ढूँढ निकालो जिसने अटैक करना बंद कर दिया हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। ज़रा सा यों 'मेरे को', 'हम को' या 'हम का' की वजह से यहाँ से छूट नहीं सकता। 'हम को' टल जाएगा न तो पूरी दुनिया ही टल जाएगी। ऐसा कोई उपदेशक नहीं कि जो अटैक बंद कर सका हो।
राग-द्वेष के भोगवटों का अनोखा हिसाब प्रश्नकर्ता : जिस पर राग हो, वही फिर द्वेष से भुगतना पड़ता है और जिस पर द्वेष है, वही फिर राग से भुगतना पड़ता है। ज़रा इस सूत्र को समझाइए।
दादाश्री : राग कभी भी यों ही तो नहीं हो जाता। राग तो, जब कोई झटका वगैरह लगे तब होता है। किसी मित्र के साथ किसी बात पर अनबन हो जाए, बोलचाल बंद हो जाए तो छ:-बारह महीनों तक अगर बोलना बंद रहे तो बहुत राग होने लगता है उसमें और जब वापस उससे बोलना शुरू करते हैं तब वे लोग गले लग जाते हैं। अब द्वेष से बोलना बंद किया था और अब द्वेष में से इतना राग हो गया कि अंत में गले लगकर मित्रता की तो इतनी अधिक एकता हो जाती है कि पूछो मत! इसी प्रकार यह सारी दुनिया चल रही है।
जहाँ आपका हिसाब है वहीं पर आकर्षण होता है। राग किसे कहते हैं कि हम खुश होकर आकर्षण पैदा करते हैं। और यह राग नहीं