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आप्तवाणी - १३ (उत्तरार्ध)
हम में कर सकने की शक्ति है । इतनी ही झंझट है । ये फुल काम करते हैं। उनमें कर सकने की शक्ति नहीं है जबकि इनमें शक्ति है, इतना ही अंतर है। क्योंकि यह चार डिग्री फेल हैं जबकि वहाँ पर पूर्णाहुति है । यानी कि ऐसी बारी कभी आती नहीं है।
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हमारे तो अभी एक-दो जन्म बाकी हैं इसलिए खटपटिया हैं, खटपटिया वीतराग! हम तो कहते हैं, उन भाई को यहाँ लेकर आना, ऐसा करना, वैसा करना, ऐसा करना, वैसा करना । जबकि वीतरागों को तो कुछ भी नहीं। उनके दर्शन से ही अपना कल्याण हो जाता है । कैसा है कि वास्तविक दर्शन हो जाएँगे, वास्तव में दर्शन करना आना चाहिए । जैसा जिसको आएगा उतना ही उसे लाभ होगा। बस ! वे वीतराग ! लेकिन जिसने उनकी वीतरागता को पहचाना, वीतरागता उसी के बाप की ! जितनी - जितनी पहचानी उतना ही उसे लाभ होगा। वे खुद इन बातों में हाथ नहीं डालते। सहज भाव से वाणी निकलती रहती है। बस ! यानी कि वे खटपटिया नहीं हैं। हम खटपटिया हैं कि उन बहन को लेकर आना क्योंकि हम जानते हैं कि यह हमारा अंतिम अवतार नहीं है इसलिए हम यहाँ पर ऐसा सब कह सकते हैं। जबकि वे ऐसा कुछ भी नहीं कहते कि 'आपका कोई ऊपरी नहीं है या आपमें कोई दखलंदाजी नहीं कर सकता', ऐसा सब नहीं कहते क्योंकि जो मोक्ष में जाने वाले हैं, वे उनका दर्शन करके प्राप्ति कर लेते हैं । जो नहीं जाने वाले, उन्हें प्राप्ति नहीं होती । वीतराग ! जिन्हें प्राप्ति होनी हो उसे हो, जिन्हें प्राप्ति नहीं होनी है उसे न हो। जबकि हमें इतना आग्रह रहता है । हम तो अभी भी खटपट करते हैं। हम खटपटिया वीतराग कहलाते हैं ।
प्रश्नकर्ता : वह तो दादा ! जो आपके पास आएँगे और समझेंगे, उनके मतभेद तो चले जाएँगे लेकिन जो नहीं आते उनके मतभेद तो रहेंगे न? तीर्थंकरों के समय में भी ऐसा ही होता होगा न ?
दादाश्री : वह ठीक है लेकिन वे खटपट नहीं करते न? हम खटपट करते हैं न! हम तो इधर से बचा लेते हैं, उधर से यों बचा लेते हैं। जबकि तीर्थंकर तो सिर्फ कहते हैं, बस इतना ही । अगर ठीक न लगे तो वह चला