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[५.२] चारित्र
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अशांति, घबराहट), चिंता, भय व कलह मन में होते ही रहते हैं, जबकि यहाँ पर वह सब बंद हो जाता है। बहुत-बहुत फर्क पड़ जाता है। महात्माओं में रौद्रध्यान और आर्तध्यान बंद हो गए हैं, उसे भगवान ने मोक्ष कहा है, यहाँ संसार में रहते हुए भी।
अभी अगर आप पूछो कि 'साहब मेरे यहाँ दस प्याले गिर गए फिर भी मेरे घर में सभी लोगों ने एकदम समता रखी थी', तो वे भगवान कहलाएँगे! वर्ना कढ़ापा-अजंपा (अशांति, कुढ़न, क्लेश, आक्रोश) हुए बगैर रहता ही नहीं, फिर चाहे वह कुछ भी हो! उन्हें कढ़ापा-अजंपा होता ही है। अब उसमें अगर कोई बुद्धिशाली हो और उसे पहले यह अनुभव हो चुका हो कि 'इसकी कीमत नहीं है, तो उसे नहीं होगा वर्ना बाकी तो अगर साधु महाराज का इतना सा लोटा टूट जाए तो भी तुरंत कढ़ापा-अजंपा हो जाता है। अब उन्हें कहाँ खरीदने जाना है! लेकिन स्वभाव छोड़ता नहीं है न! अपने यहाँ पर आर्तध्यान और रौद्रध्यान बंद हो चुके हैं, बहुत ज़्यादा बदलाव है, यदि नापने जाएँ तो इतना अधिक परिवर्तन आ गया है न!
ज्ञाता-दृष्टा, वह वास्तविक चारित्र प्रश्नकर्ता : सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र ये तीनों अलग-अलग होने के बावजूद भी किसी को एक ही साथ होते हैं न?
दादाश्री : नहीं! एक साथ नहीं होते। दर्शन और ज्ञान स्टेपिंग में होते हैं। चारित्र अलग चीज़ है। लोग जिसे चारित्र कहते हैं न, वह अलग है।
सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र, इनमें क्रोध-मानमाया-लोभ वगैरह कषाय का निवारण हो जाता है, उसे सम्यक् चारित्र कहा जाता है और दरअसल (वास्तविक) चारित्र अर्थात् देखना और जानना। फिर भी, अगर यह चारित्र होगा तभी अंदर दरअसल चारित्र आएगा। लोगों को दरअसल दिखाई नहीं देता लेकिन यह सम्यक् चारित्र