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[५.२] चारित्र
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दादाश्री : यह जो मूलतः आत्मा का चारित्र है, वह मूल चारित्र उत्पन्न होता है, यथार्थ चारित्र । तब तक उलझनों में ही पड़ा रहता है। न इसमें होता है न उसमें होता है और उलझनों में ही पड़ा रहता है।
अज्ञानी लोगों के घर में मटकी फूट जाए तो उनका ज्ञान भी नहीं बदलता। ज्ञाता-दृष्टा रहते हैं उस समय लेकिन वह अहंकारी ज्ञाता-दृष्टा है। वहाँ कषाय नहीं करता है। क्यों नहीं करता? क्योंकि उसे लगता है कि 'इसकी क्या कीमत है!' यह जो मटकी फूट गई, उसकी ! उसकी कीमत नहीं है इसलिए उसे राग-द्वेष नहीं होते। अतः उसका चारित्र नहीं बदलता। वह इसलिए कि वह मूल रूप से तो उसे प्रतीति बैठ गई थी कि यह कम कीमत की है और एक दो बार पहले फूट चुकी हो तो फिर अनुभव हो जाता है। इसलिए जब फिर से फूट जाए तो उसमें अंदर कुछ परिवर्तन नहीं होता। फिर भी उस क्षण उसका चारित्र उच्च प्रकार का कहा जाएगा। यदि बाहर भी कषाय नहीं हों तो उसे चारित्र कहेंगे।
जबकि इसमें तो कषाय की बात ही कहाँ रही? इसमें तो ज्ञातादृष्टा रहा, वही चारित्र है। उसका खुद का बेटा उस तरफ एक मन दूध गिराता रहता है और खुद ज्ञाता-दृष्टा रहता है, वह चारित्र है। इमोशनल नहीं होता।
प्रश्नकर्ता : तो ज्ञाता-दृष्टा का मुख्य परिणाम यह है कि इमोशनल नहीं होता।
दादाश्री : जो बुद्धि रहित है, वही ज्ञाता-दृष्टा रह सकता है। बुद्धि इमोशनल किए बगैर नहीं रहती। बुद्धि खत्म हो जाने के बाद ही वह पद उत्पन्न होता है।
प्रश्नकर्ता : मान लीजिए कि हमारे साथ दिन में सौ बार ऐसी घटनाएँ होती हों तो उनमें उदाहरण के तौर पर पचास साठ घटनाओं में तो बुद्धि खड़ी नहीं होती और कुछ में बुद्धि खड़ी हो जाती है, तो महात्माओं में वह किस आधार पर खड़ी होती है और कौन से आधार पर नहीं होती?