________________
३१२
आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
क्रमिक मार्ग में सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र, वे बाह्य हैं। अंदर का भाग तो अंदर का ही है लेकिन वह सारा शब्दों में है, यथार्थ नहीं है। बहुत हुआ तो छठवें गुणस्थानक तक पहुँचता है
और सातवाँ शायद ही कभी दिखाई देता है। बस, सातवें गुणस्थानक पर कभी एकाध घंटे के लिए जा सकता है। वैसा हुआ नहीं है इस काल में अभी तक। तो यह उसका वर्णन है। अपने अक्रम मार्ग में तो केवलदर्शन, केवलज्ञान और केवलचारित्र हैं। उसमें केवलदर्शन में पहुंच गए हैं। केवलज्ञान में पहुँच पाएँ, ऐसा है नहीं। अतः अब हमें अपने जो सारे पिछले नुकसान हैं न, वे सारी कमियाँ पूरी कर देनी हैं क्योंकि दर्शन, ज्ञान, चारित्र की प्राप्ति की है। अतः हमें यहाँ पर पूछ-पूछकर अपना सारा बैंक बेलेन्स है न और सारा ओवर ड्राफ्ट है, वे सब चुका देने हैं। सप्लाई कर देने हैं। वरीज़ नहीं रही न अब। जब तक अहंकार है, तभी तक सारी परेशानी है। अहंकार चला गया तो सबकुछ चला गया।
प्रश्नकर्ता : जैसे-जैसे दादा के चारित्र के दर्शन होते हैं, नज़दीक से देखने मिलता है, तब ऐसा ही होता है कि हम में भी ऐसा चारित्र प्रकट हो।
दादाश्री : वह तो हो जाएगा, आपको चिंता भी नहीं करनी पड़ेगी। देखना आना चाहिए बस। इसमें प्रयत्न करने वाला रहा ही कहाँ फिर? प्रयत्न करने वाला तो खुद अकर्ता बन चुका है। अकर्ता प्रयत्न किस प्रकार से करेगा?
प्रश्नकर्ता : प्रयत्न नहीं रहे तब सहज प्राप्त हो जाता है।
दादाश्री : प्रयत्न हो जाते हैं, वह भी सहज है क्योंकि वह भोक्तापद का अहंकार है, कर्तापद का अहंकार नहीं है। वह भोक्तापद का अहंकार प्रयाण करता है तो वह भी सहज ही है। वह प्रयत्न नहीं कहलाता लेकिन वह तो हमें कहना पड़ता हैं, शब्द पहुँचता ही नहीं है वहाँ पर।
प्रश्नकर्ता : 'दादाजी का चारित्र देखना आ जाएगा और प्रकट हो