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आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
प्रश्नकर्ता : ब्रह्मचर्य का एक्ज़ेक्ट आराधन किया जाए तो फिर पूर्ण चारित्रवान हो जाएगा न ?
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दादाश्री : क्यों नहीं होगा ? जिसे ज्ञान दिया है, वह हो जाएगा। दूसरों को नहीं होगा । दूसरा कुछ-कुछ प्रोग्रेस करेगा । ज्ञान वाला तो पूर्ण चारित्र ! शीलवान पसंद हैं न ?
प्रश्नकर्ता : शीलवान पसंद हैं । हम चूक जाते हैं। मुझसे भी टकराव हो जाता है।
दादाश्री : हम जो कुछ भी कहते हैं न, वह तो सार है कि जिस क्षेत्र में जाना है उस क्षेत्र की बात है। तीर्थंकर शीलवान कहलाते हैं और शीलवान बनना है, फिर जितना हो पाया उतना ठीक है और बाकी की जो कमी है उसे जानना चाहिए कि कितनी कमी है !
तब आएगा निश्चय में
'निश्चयथी व्यवहारथी रे, ज्ञानादिक स्वरूप रे ।'
- श्रीमद् राजचंद्र
(निश्चय और व्यवहार से ज्ञान आदि स्वरूप रे ।)
निश्चय से तो ज्ञान-दर्शन - चारित्र रूपी है और व्यवहार से क्या है ? वही का वही । वह भी ज्ञान - दर्शन - चारित्र रूपी है । यह व्यवहार इन्द्रियगम्य है, इन्द्रियज्ञान है । इन्द्रिय ज्ञान, दर्शन व चारित्र व्यवहार है और निश्चय वाला जो है वह अतिन्द्रिय ज्ञान - दर्शन व चारित्र है लेकिन निश्चय और व्यवहार से ज्ञान - दर्शन - चारित्र रूपी है।
ये चंदूभाई नाटक का अवतार हैं । आप 'चंदूभाई' नामक नाटक करने आए हो और अंदर से आप ऐसा जानते हो कि 'मैं शुद्धात्मा हूँ'। भर्तृहरि का नाटक करने आए हो और वास्तव में अंदर ऐसा जानते हो कि ‘लक्ष्मीचंद हूँ’। वह अपने लक्ष्मीचंद को भूलता नहीं है, आप अपने शुद्धात्मा को नहीं भूलते। यह जो इस दुनिया का नाटक है, वह निश्चय