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आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
दादाश्री : नहीं । उसे असंग और भिन्न दोनों की प्रतीति होती है ।
फिर धीरे-धीरे चारित्र की भूमिका तैयार होती है लेकिन वह कब तैयार होगी? जैसे-जैसे चारित्र मोहनीय कम होता जाएगा न, वैसे-वैसे होती जाएगी। जैसे-जैसे चारित्र मोहनीय घटता जाएगा तो दूसरी तरफ शुद्ध चारित्र बढ़ता जाएगा।
सम्यक् दर्शन की ज़रूरत है नींव में ही
अब दर्शन, ज्ञान और चारित्र । इनमें से, दर्शन तो अपना बदल गया है। ज्ञान भी उसी प्रकार का शुरू हो गया है।
जो चारित्र में गुथ गया है न, वह गुथा हुआ, खुल जाना चाहिए।
प्रश्नकर्ता : पुराना ?
दादाश्री : हाँ वही न। यह जो पिछले जन्म में मिथ्यात्व दर्शन था न, उससे मिथ्यात्व ज्ञान में परिणामित हो गया और क्योंकि परिणामित हो गया है इसलिए फिर मिथ्यात्व चारित्र उत्पन्न हो गया।
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मुख्य कारण क्या है ? तो वह यह है कि, यदि दर्शन ऐसा मिथ्यात्व नहीं होता, सम्यक् दर्शन होता तो सम्यक् ज्ञान में परिणामित होता और सम्यक् चारित्र की प्राप्ति हो जाती लेकिन यह दर्शन मिथ्यात्व था। अब वह मिथ्यात्व दर्शन खत्म हो गया है। अब सम्यक् दर्शन उत्पन्न हुआ है कि ‘मैं तो शुद्धात्मा हूँ’। चंदूभाई तो इस व्यवहार के लिए है, वह पिछली गुनहगारी है लेकिन वह पहले का जो यह सब चारित्र में गुथ गया है, वे सारे हिसाब चुकाने पड़ेंगे। फिर मन में ऐसा लगता है कि 'अरे यह जाता क्यों नहीं है?' लेकिन यह जाएगा किस तरह से ? बहुत मज़बूत गुथा हुआ है। मन, वचन, काया की आदतें और उनके स्वभाव, वे स्वभाव मज़बूत हैं न ! कितनी सारी फाइलों के कम होने के बाद। इसमें से तो उलीचना ही पड़ेगा संसार सागर ।
प्रश्नकर्ता : आपने कहा है कि ये दर्शन में भी नहीं आए हैं ।