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[५.२] चारित्र
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है। चारित्र मोहनीय सिर्फ अपने महात्माओं में ही है। बाकी किसी भी जगह पर चारित्र मोहनीय नहीं है। वहाँ पर तो मिथ्यात्व मोहनीय होता
है।
जिनमें चारित्र मोहनीय उत्पन्न हो जाता है न, उनके लिए तो ऐसा कहा जाएगा कि मोक्ष में जाने की तैयारी हो गई।
चारित्र मोहनीय हटने से प्रकट होता है पूर्णत्व प्रश्नकर्ता : परमार्थ समकित का मतलब क्या है ?
दादाश्री : परमार्थ समकित! आपको हमेशा यह लक्ष (जागृति) में रहता है न कि 'मैं शुद्धात्मा हूँ'? वह परमार्थ समकित है।
प्रश्नकर्ता : तो क्या वह चारित्र की भूमिका में आता है ?
दादाश्री : हाँ, वह चारित्र की भूमिका में आता है लेकिन वह पूर्ण चारित्र नहीं है। जब तक चारित्र मोहनीय नहीं चला जाता तब तक पूर्ण चारित्र नहीं कहा जा सकता।
प्रश्नकर्ता : मोहनीय के साथ भी चारित्र की भूमिका तो है न? उस तरफ का उसका लक्ष तो है ना?
दादाश्री : हाँ! जब लक्ष आता है न, तब चारित्र की भूमिका कहलाती है और यह जो है, वह प्रतीति की भूमिका कहलाती है लेकिन अगर इतना हो जाए न, तो भी बहुत कहा जाएगा।
कृपालुदेव ने कहा है कि 'जेम आवी प्रतीति जीवनी रे' (जैसे ही आई प्रतीति जीव की रे) फिर जैसे ही 'मैं शुद्धात्मा हूँ' इस शब्द से उसे समझ में आता है कि यह सब 'मैं नहीं हूँ', वैसे ही फिर क्या होता है ? 'जाणे सर्व थी भिन्न असंग' (सब से भिन्न और असंग है, ऐसा जानता है।) वह खुद असंग ही है।
प्रश्नकर्ता : असंग हो जाए, भिन्न हो जाए तो क्या वह पूर्ण चारित्र