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आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
प्रश्नकर्ता : यह जो कहा है 'उदय थाय चारित्रनो' तो वह कौन सा चारित्र है?
दादाश्री : मूल चारित्र, आत्मचारित्र। क्रमिक मार्ग में जो लिखा गया है, वह सम्यक् चारित्र है जबकि यह तो मूल चारित्र में है। ज्ञायक स्वभाव अर्थात् मूल चारित्र। चारित्र अर्थात् आत्मचारित्र की तरफ जाते हुए सभी चारित्र, यानी कि स्टेप बाइ स्टेप चारित्र। संसार में से वापस मुड़कर और आत्मा की तरफ के चारित्र उत्पन्न हों, तभी से वह चारित्र माना जाता है।
प्रश्नकर्ता : रिवर्स गति।
दादाश्री : हाँ, रिवर्स और तभी से वह चारित्र कहलाता है। लेकिन लौकिक चारित्र कब तक चारित्र कहलाता है? जब तक खुद इस देह को ऐसा मानता है कि 'मैं आत्मा हूँ', तब तक देहाध्यास गया नहीं है। तब तक वह लौकिक चारित्र है। और देहाध्यास खत्म होने के बाद अलौकिक चारित्र उत्पन्न होता है। तो हमने जिन्हें ज्ञान दिया है उन सभी में अलौकिक चारित्र उत्पन्न हुआ ही है लेकिन उन्हें खुद को समझ में नहीं आता कि हमारे अंदर अलौकिक चारित्र बरत रहा है। उसका कारण यह है कि एक ही घंटे में निबेड़ा हो गया न। फिर जब हम से बार-बार विस्तारपूर्वक पूछेगे तब समझ में आएगा। विस्तारपूर्वक, इन डिटेल में जाना चाहिए।
प्रश्नकर्ता : अपने महात्माओं में तो चारित्र का उदय हो गया है
न?
दादाश्री : हाँ, हो चुका है। इसीलिए न। इसीलिए श्रीमद् राजचंद्र का यह वाक्य पूर्ण हो गया न! लेकिन चारित्र का वह उदय हमेशा के लिए नहीं रहता। 'उदय थाय चारित्रनो वीतरागपद वास।' लेकिन फिर 'केवल निज स्वभाव, अखंड वर्ते ज्ञान।' (हमेशा निज स्वभाव का ही अखंड ज्ञान बरतता है) 'कहीए केवलज्ञान ते देह छतां निर्वाण' (जिसे केवलज्ञान कहते हैं, वह देह सहित निर्वाण है) अक्रम है न! इसलिए आत्मा का चारित्र रहता है।