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[५.२] चारित्र
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प्रश्नकर्ता : इसके लक्षण क्या हैं ?
दादाश्री : ऐसा है न, उसका वह चारित्र बहुत ही कम परिमाण में होता है। वह इन आखों से देखने-जानने के बराबर नहीं है। बुद्धि से देखने-जानने को जानना नहीं कहते। जहाँ आँख का उपयोग नहीं है, मन का उपयोग नहीं है, बुद्धि का उपयोग नहीं है, और उसके बाद भी उसे देखे और जाने, वह चारित्र है।
प्रश्नकर्ता : अर्थात् अंदर की परिणति? दादाश्री : हाँ, वह उसका चारित्र है, आत्मा का।
तब उदय होता है चारित्र का प्रश्नकर्ता : हमें चारित्र का उदय किस तरह से करना चाहिए? कॉमन लेंग्वेज में हम अध्यात्म के चारित्र को चारित्र कहते हैं न, इस बात को ज़रा गहराई से समझाइए न।
दादाश्री : चंदूभाई क्या कर रहे हैं, उसे देखते रहना। ज्ञाता-दृष्टा, वही चारित्र कहलाता है। चंदभाई का मन क्या कर रहा है? बुद्धि क्या कर रही है? उसे देखते रहना ही चारित्र कहलाता है। वह चारित्र का उदय होना कहलाता है।
प्रश्नकर्ता : उसका पुरुषार्थ करना अपने हाथ में है?
दादाश्री : हाँ। क्योंकि पुरुष होने के बाद पुरुषार्थ अपने हाथ में है। आत्मा हो जाने के बाद अपने हाथ में पुरुषार्थ है। किसी जगह पर, संसार में किसी दूसरी चीज़ में उपयोग चला जाए तो हमें वह खराब लगता है कि 'भाई वापस वहाँ चला गया? क्यों गया? आत्मा में रहो', ऐसा होता है।
प्रश्नकर्ता : लौकिक भाषा में जिसे कहते हैं न कि 'खराब चारित्र को' भी देखते रहें तो वह आध्यात्मिक चारित्र है?
दादाश्री : बस। वही आध्यात्मिक चारित्र है ! वह जो चारित्र है,