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आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
प्रश्नकर्ता : फिर भी वे लोग माँस बहुत खाते हैं।
दादाश्री : नहीं। लेकिन इंसान-इंसान को तो नहीं खाता इसलिए कुछ तो धर्म है वहाँ पर। वे लोग जानवरों को खाते हैं।
प्रश्नकर्ता : ज्ञान का मतलब समझ है ना?
दादाश्री : ज्ञान अर्थात् हिताहित का भान होना, हिताहित का ज्ञान जानना, खुद का हित किसमें है और अहित किसमें है, इतना जान लिया तो वह ज्ञान है। पहले वह पुस्तकों में पढ़ता है कि मनुष्यों का माँस खाना भयंकर राक्षसी वृत्ति कहलाती है। ऐसा है, वैसा है। कोई अपने बच्चों को खा जाए तो क्या होगा? इसलिए तब फिर उसे उस पढ़ी हुई चीज़ पर श्रद्धा बैठ जाती है, वह दर्शन कहलाता है और जो पढ़ा हुआ है, श्रद्धा में आया हुआ जब अनुभव में आता है तब वह ज्ञान कहलाता है और जब वर्तन में आता है तब चारित्र कहलाता है। वह व्यवहार ज्ञान, दर्शन और चारित्र।
ज्ञान अर्थात् अनुभव। दर्शन अर्थात् वह ज्ञान जो अनुभव रहित है, अनडिसाइडेड। पढ़ा कि तुरंत ही हमें श्रद्धा बैठ जाती है, हमें ऐसा लगता है कि बात सही है। जब तक खुद के आत्मा की समझ नहीं है, तब तक अहिंसा की समझ होनी चाहिए। तब तक अहिंसा को धर्म कहा गया है, व्यवहार धर्म को। अहिंसा का (ज्ञान) जितना-जितना निरावृत, उतना ही वह धर्म उच्च है। धर्म सभी सही हैं लेकिन एक समान नहीं है। जितने परिमाण में अहिंसा का पालन करते हैं उतने ही परिमाण में उसका धर्म है। वह सारा व्यवहार का ज्ञान, दर्शन और चारित्र है जबकि निश्चय का तो, आत्मा जानने के बाद आत्मा पर श्रद्धा बैठती है। ज्ञानीपुरुष के पास आकर जब वास्तविक आत्मा पर श्रद्धा बैठती है तब वह सम्यक् दर्शन कहलाता है।
प्रश्नकर्ता : उसके बाद की सीढ़ी सम्यक् ज्ञान है ?
दादाश्री : जब अपने अनुभव में आ जाए तब ऐसा कहा जाएगा कि सम्यक् ज्ञान हो गया और चारित्र में आने के बाद सम्यक् चारित्र।