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[५.२] चारित्र
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चारित्र है। हर किसी का अपनी-अपनी भाषा का, भ्रांत भाषा का चारित्र । भ्रांति वाले भी इसे चारित्र कहते हैं। तो फिर ज्ञानी की भाषा का चारित्र क्या है ? भ्रांति वाले का चारित्र कोई चारित्र-वारित्र नहीं है, फिर भी इस रूम में, यहाँ के लिए यह बात कर रहा हूँ, बाहर नहीं कर सकते। बाहर तो उनके चारित्र को चारित्र कहना पड़ेगा। उन्हें उसी का मुख्य आधार है। बाहर तो आगे की बात है ही नहीं न। भ्रांति की ही बात है न! अर्थात् 'अहिंसा का पालन करो, सत्य बोलो, चोरी मत करो, अब्रह्मचर्य मत करो, परिग्रह मत रखो', वह सब चारित्र। बाहर तो मुझे ऐसा ही कहना पड़ेगा। आपको यहाँ की भाषा का जानना है या बाहर की भाषा का?
प्रश्नकर्ता : बाहर की दुनिया में ही जी रहे हैं इसलिए बाहर का भी जानना पड़ेगा और अंदर का भी जानना पड़ेगा। दोनों ही।
दादाश्री : हाँ, तो बाहर का ऐसा है और अंदर का ऐसा है। बाहर जो चारित्र है. वह भ्रांति का चारित्र है। भ्रांति में से बाहर निकलने के प्रयत्न हैं। 'बहुत दिनों तक प्रयत्न किए लेकिन मिल नहीं रहा था न!
और कहते हैं कि दादा आपके पास से एक घंटे में सबकुछ मिल गया। चारित्र भी मिल गया।'
वीतरागों का चारित्र है अरूपी जो आँखों से दिखाई देता है, उस चारित्र को भगवान चारित्र कहते ही नहीं हैं। ज्ञान-दर्शन-चारित्र, ऐसी चीजें हैं जो आँखों से नहीं दिखाई देतीं। इन्द्रिय प्रत्यक्ष नहीं है वह चीज़। यानी वह चारित्र तो और ही तरह का होता है।
ज्ञान-दर्शन-चारित्र, वे रूपी नहीं हैं, अरूपी हैं। लोग रूपी को ढूँढ रहे हैं। जो प्रत्यक्ष दिखाई दे, ऐसा ढूँढ रहे हैं। वह रूपी नहीं है। रूपी और अरूपी में बहुत अंतर है। भगवान, वीतरागों का बताया हुआ रूपी नहीं है, अरूपी है और लोगों का बताया हुआ रूपी है। लेकिन जिन्हें मोक्ष में जाना है उन्हें वीतरागों का कहा हुआ मान्य रखना पड़ेगा। मोक्ष के लिए वीतारगों के सिवा अन्य किसी की भी बात मान्य नहीं हो