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आप्तवाणी - १३ (उत्तरार्ध)
दादाश्री : नहीं, समझ में नहीं आएगा। समझना आसान नहीं है न! खुद को पता चलता है कि ' भाई, यह कुछ बैठ (सेट हो) गया है'। अगर अपने पास कोई हीरा हो तो हमें उसकी प्रतीति नहीं होती इसलिए हम सभी जगह जाँच करवाकर आते हैं । जाँच करवाने के बाद उस हीरे को बहुत सस्ते में किसी जगह पर बेच देते हैं । हमें कहते हैं कि दो अरब का है लेकिन हमें ऐसा लगता है कि 'अरे भाई 100, 200, 500 जो आए वह ले लो न !' वह इसलिए, क्योंकि प्रतीति नहीं बैठी है और यदि प्रतीति बैठ जाए तो फिर उसे दुःख हो या खाने को न हो, फिर भी नहीं बेचेगा ।
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प्रश्नकर्ता : हाँ, उसकी कीमत पता चलने के बाद नहीं बेचेगा।
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दादाश्री : वही है प्रतीति बैठना !
प्रश्नकर्ता: प्रतीति बैठ जाती है फिर । अब इसमें यह किस प्रकार
से है ?
दादाश्री : और वह प्रतीति उठ गई ।
प्रश्नकर्ता : कौन सी प्रतीति ?
दादाश्री : 'मैं चंदूभाई हूँ, ऐसा हूँ, वैसा हूँ', वह जो सारी रोंग बिलीफें थीं, वे सब उठ गई । 'इसका फादर हूँ, इसका मामा हूँ, इसका चाचा हूँ, इसका फूफा हूँ', वह सारी प्रतीति उठ गई और यह प्रतीति बैठी। उसे क्षायिक दर्शन कहते हैं । क्षायिक दर्शन अर्थात् उसमें समझने की सभी चीज़ें आ गई। फिर भी अभी आपको क्यों समझना है ? समझने वाली चीज़ आ गई है लेकिन आप पूरी तरह से समझे नहीं हो इसलिए आपको बार-बार पूछते रहना है।
प्रश्नकर्ता : पूछते रहने से समझ में आ जाएगा ?
दादाश्री : यानी मूलत: वह समझ की लाइन सारी पूरी हो जाती है और उसके बाद में अनुभव के अंश बर्तते हैं।