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आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
प्रश्नकर्ता : लेकिन हमें उसकी ज़रूरत नहीं है न! हमारे लिए ऐसा नहीं है न कि व्यवहार चारित्र की प्राप्ति के बाद ही मोक्ष में जा सकें ?
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दादाश्री : नहीं यह अक्रम विज्ञान है इसलिए ज़रूरत नहीं है। वर्ना हालत खराब हो जाएगी। इन दो विषयों की वृत्तियाँ बंद करना, वह क्या कोई आसान बात है । ये लोग क्रमिक में मार खा-खाकर मर गए फिर भी कोई ठिकाना नहीं पड़ता है न! और यह तो विज्ञान है, अक्रम विज्ञान है। खोज है एक प्रकार की । ज्ञान वही का वही है लेकिन खोज हाइ लेवल की है! अपने यहाँ पर ब्रह्मचर्य चारित्र का पालन करने वाले कितने होंगे? सौ-दो सौ लोग होंगे ! उनमें से भी दो - पाँच लोग हमारे पास से ब्रह्मचर्यव्रत ले गए हैं, वह भी साल दो साल के लिए ।
अब यह क्रमिक मार्ग क्या कहता है कि जहाँ पर चारित्र नहीं है, वहाँ पर कुछ है ही नहीं जबकि अपना यह विज्ञान तो कहता है कि उससे कोई लेना-देना नहीं है। यदि तुझे आता (विज्ञान पता) है तो इसका कुछ भी असर नहीं होगा। दोनों अपने-अपने स्वभाव में बरतते हैं।
प्रश्नकर्ता : चंदूभाई अलग और मैं अलग ?
दादाश्री : हाँ, वे अलग-अलग ही बरतते हैं। ऐसा ही है लेकिन अक्रम को क्रमिक मार्ग में नहीं डाल सकते क्योंकि क्रमिक मार्ग हमेशा के लिए है जबकि यह मार्ग कुछ समय के लिए ही है।
मिथ्या ज्ञान - मिथ्या दर्शन - मिथ्या चारित्र
प्रश्नकर्ता : ज्ञान, दर्शन और चारित्र का यथार्थ रूप से परिणामित होना, इससे आप क्या कहना चाहते हैं ?
दादाश्री : इन लोगों में अज्ञान परिणामित हुआ है इसीलिए कहते हैं न कि ‘तू क्या समझता है ? अभी तुझे धौल लगाऊँगा'। वह कहलाएगा अज्ञान का परिणमन। तो जब चंदूभाई धौल लगा रहे हों तो खुद को