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[५.१] ज्ञान-दर्शन
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यह क्या आश्चर्य है? आपने क्या रख दिया है ? मैंने कहा, 'नहीं! इसका स्वभाव ही ऐसा है'। यह क्रियाकारी ज्ञान है। यह जब तक आपको मोक्ष में नहीं ले जाएगा तब तक छोड़ेगा नहीं। यह ज्ञान ही ऐसा है कि मोक्ष में ले जाएगा।
गुह्य, गुह्यतर और गुह्यतम ज्ञान प्रश्नकर्ता : गुह्य ज्ञान, गुह्यतर ज्ञान और गुह्यतम ज्ञान किसे कहेंगे?
दादाश्री : जिस ज्ञान से हमें प्रतीति हो जाए कि 'नहीं, यह हंड्रेड परसेन्ट सही लग रहा है', वह सही हो नहीं गया है लेकिन सही लग रहा है। जिस ज्ञान से हंड्रेड परसेन्ट प्रतीति हो जाए, वह गृह्य ज्ञान कहलाता है। प्रतीति हो जाए कि वास्तव में 'मैं आत्मा ही हूँ, दादाजी जैसा कह रहे हैं, वैसा ही हूँ', वह गुह्य ज्ञान कहलाता है।
और गुह्यतर ज्ञान यानी कि, अब गुह्य ज्ञान अर्थात् क्या? वह दर्शन के रूप में है और यह गुह्यतर ज्ञान, वह अनुभव है। जो दर्शन हुआ है, उसका अनुभव है, और गुह्यतम, वह चारित्र है, संपूर्ण चारित्र। यानी कि 'स्व' में ही रहता है, 'पर' में जाता ही नहीं। 'स्व' में रहकर 'पर' का निरीक्षण करता रहता है। 'पर' का दृष्टा रहता है। जब तक गुह्य और गुह्यतर ज्ञान है तब तक दोनों का मिक्स्चर चलता रहेगा। कभी यों फिसल पड़ता है, यों फिसल पड़ता है। उसमें फिसलना-विसलना नहीं होता, गुह्यतम ज्ञान में। मेरी समझ के अनुसार उसका अर्थ यह है। औरों को जो समझ में आता है वह बुद्धि का भेद है, वह अलग बात है। मुझमें तो यह बुद्धि रहित ज्ञान!
प्रश्नकर्ता : आपने तो अध्यात्म की बात कही लेकिन शाब्दिक अर्थ निकालेंगे तो थोड़ा अलग तरह का होगा।
दादाश्री : मेरा कहना है कि गुह्य ज्ञान जैसा कुछ होता ही नहीं है। किसी न किसी प्रकार से ओपन हो ही चुका होता है। गुह्य ज्ञान किसे कहेंगे कि जो ज्ञान जगत् के ज्ञान से बाहर ही है।