________________
२८४
आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
हो, तब वह व्यवहार चारित्र कहा जाएगा। किसी धर्म के प्रति द्वेष नहीं रहता।
भगवान ने जिसे व्यवहार चारित्र कहा है, वह तो बहुत ऊँची चीज़ है। व्यवहार चारित्र तो वीतरागों के मत को जानता है कि वीतरागों का अभिप्राय क्या है! खुद का अभिप्राय क्या है, वह तो अलग चीज़ है लेकिन वीतरागों के अभिप्रायों को मान्य करके सारा काम करे, वह व्यवहार चारित्र। खुद से जितना हो पाए उतना, लेकिन वीतरागों के अभिप्राय पर कायम रहते हुए उसी अनुसार चलता रहता है कि 'वीतराग के अभिप्राय इस अनुसार हैं'। फिर खुद से जितना हो पाए उतना, लेकिन वह व्यवहार चारित्र कहलाता है।
और जिनका आत्मा प्रकट हो गया है न, उनमें सारी शक्तियाँ उत्पन्न हो गई। सारे ज्ञानी, पाँच लाख ज्ञानी हों फिर भी उनका एक ही मत रहता है और तीन अज्ञानी हों तो उनमें सौ तरह के भेद पड़ जाते हैं। ये सारे मतभेद अज्ञानियों में होते हैं और ज्ञानियों में मतभेद नहीं होते। हमारे यहाँ पर आपको सभी में किसी प्रकार का मतभेद जैसा लगता है ? ज्ञान भले ही कम-ज़्यादा होगा, ज्ञान तो एक ही प्रकार का दिया है न, लेकिन पात्र के अनुसार परिणामित होता है। कम-ज्यादा है, फिर भी क्या हिसाब में किसी प्रकार से कोई मतभेद है? कोई खींचा-तानी, ऐसा-वैसा कुछ है? तो इसे चारित्र कहते हैं, व्यवहार चारित्र। निश्चय चारित्र में तो मेहनत ही नहीं होती। किसी भी प्रकार की मेहनत ही नहीं होती। सारी मेहनत व्यवहार चारित्र में है। शरीर सयाना हो जाए, वह व्यवहार चारित्र और आत्मा सयाना हो जाए, वह कहलाता है निश्चय चारित्र। आत्मा सयाना हो जाए इसका मतलब ज्ञाता-दृष्टा, परमानंद में ही रहता है। अन्य किसी झंझट में नहीं पड़ता। जो 'निश्चय चारित्र' में आ गए, वे तो भगवान बन गए! 'केवलज्ञान' के बिना 'निश्चय चारित्र' पूर्ण दशा तक नहीं पहुँच सकता।
भेद, व्यवहार और निश्चय चारित्र का प्रश्नकर्ता : 'बिना चारित्र के मोक्ष नहीं है और बिना मोक्ष के निर्वाण नहीं है।'