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[२.५] वीतरागता
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धौल लगाएँ और वह हमारे सामने हँसे तब हम जान जाएँगे कि इनमें सजह क्षमा है। तब हमें समझ में आएगा कि बात सही है।
प्रश्नकर्ता : करुणा की तरह वीतरागता भी लक्षण ही कहा जाएगा न?
दादाश्री : वीतरागता लक्षण कहा जाएगा, उसका गुण नहीं है। राग-द्वेष भी उसका गुण नहीं है और वीतरागता भी उसका गुण नहीं है। यह तो व्यवहार की वजह से लक्षण उत्पन्न हुए हैं क्योंकि वहाँ पर शब्द के रूप में कुछ है ही नहीं न! जब तक ये शब्द हैं, तब तक व्यवहार है। शब्द वाले गुण हैं ही नहीं वहाँ पर।
__करुणा की पराकाष्ठा कहाँ प्रश्नकर्ता : जो संपूर्ण वीतराग हैं, उन तीर्थंकरों की करुणा और जो खटपटिया वीतराग हैं, उन सजीवनमूर्ति दादा की करुणा में क्या अंतर है?
दादाश्री : यहाँ पर व्यक्तियों के लिए हो जाता है। जबकि तीर्थंकरों का सामान्य रूप से पूरा एक सरीखा होता है। यहाँ पर तो 'फलाने आए, वे आए', व्यक्तियों के लिए इस प्रकार से हो जाता है। जबकि उनका व्यक्तियों को लेकर नहीं होता, एक सरीखा होता है। समान! उनकी बेटी आए या अन्य कोई भी आए तो भी समान।
प्रश्नकर्ता : उसके परिणाम और इसके परिणाम में कोई अंतर है
क्या?
दादाश्री : परिणाम तो एक ही प्रकार के होते हैं। परिणाम में अंतर नहीं होता लेकिन ऐसा दिखाई देता है, वर्तन में। परिणाम शुद्ध होते हैं लेकिन बाह्य व्यवहार ऐसा दिखाई देता है। व्यवहार तो, पहले जो प्रतीति थी, उसके आधार पर है इसीलिए जरा अंतर दिखाई देता है इसमें।
वीतरागों में तो बिल्कुल भी राग-द्वेष नहीं होते इसलिए वे कर ही नहीं सकते और हम में तो ज़रा सा यह चार डिग्री कम है इसीलिए