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[४] ज्ञान-अज्ञान
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यह जगत् आधार की वजह से खड़ा है। खुद ही आधार देता है। यदि आधार नहीं देगा तो यह जगत् गिर जाएगा।
इस ज्ञान की प्राप्ति के बाद 'मैं 'पना, 'मैं' में बैठ गया अतः अज्ञान निराधार हो गया, उसका आधार खिसक गया। अतः फिर अज्ञान चला जाता है। आधार की वजह से यह सब खड़ा है।
जो अज्ञान निराधार हुआ है, उसे हम आधार दे रहे थे कि मैं चंदूभाई हूँ, मैं शाह हूँ, मैं जैन हूँ, मैं फलाना हूँ, मैं फलाना हूँ। मैं सत्तर साल का, साठ साल का हूँ, पचास साल का हूँ, सारे साल भी खुद के ही हैं। वह आधार दे रहे थे। वह सारा आधार निराधार होकर गिर पड़ा, अपने आप ही। इस सारे अज्ञान और भ्रांति को हमने आधार देकर ही खड़ा रखा हुआ है। जब ज्ञान दिया तब मैंने कहा, 'आधार छोड़ दो। अतः निराधार होकर गिर जाता है सबकुछ।
प्रश्नकर्ता : उसके बाद तो फिर सिर्फ आत्मा का ही आधार रहता है न!
दादाश्री : नहीं। 'खुद' ही रहे फिर। हम किसी चीज़ को आधार देने वाले रहे ही नहीं। पहले तो आधार देने वाले थे न, इसलिए भ्रांति थी। अब आधार देने वाले चले गए, निराधार हो गया सबकुछ, गिर गया एकदम से! अतः अज्ञान निराधार हो गया तो अज्ञान चला गया। अतः बाकी बचा सिर्फ प्रकाश ही और वह भी फिर स्व-पर प्रकाश। जो आपको भी प्रकाशित करता है और चंदूभाई को क्या-क्या हुआ, उसे भी प्रकाशित करता है। पर वस्तु को प्रकाशित करता है खुद अपने आप को भी प्रकाशित करता है, ज्ञान प्रकाश! धन्य है न वीतराग विज्ञान को!
फर्क है भ्रांति और अज्ञानता में प्रश्नकर्ता : भ्रांति और अज्ञानता में फर्क है क्या? दादाश्री : बहुत फर्क है भ्रांति और अज्ञानता में।