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[5.1] ज्ञान-दर्शन
परिभाषा रत्नत्रय की प्रश्नकर्ता : ज्ञान, दर्शन और चारित्र के बारे में समझाइए। दादाश्री : व्यवहार ज्ञान-दर्शन के बारे में जानना है या परमार्थ ? प्रश्नकर्ता : परमार्थ।
दादाश्री : परमार्थ ! परमार्थ ज्ञान अर्थात् आत्मा का ज्ञान। सीधे ही आत्मा प्राप्ति, बीच में अन्य कोई दखल नहीं। आत्मा प्राप्ति का ज्ञान ही ज्ञान कहलाता है। वह चाहे पुस्तकों से प्राप्त हुआ हो या सुनने से प्राप्त हुआ हो या श्रुतज्ञान से प्राप्त हुआ हो। उस ज्ञान प्राप्ति के बाद उसे दर्शन अर्थात् प्रतीति बैठती है। ऐसी प्रतीति कि इस ज्ञान में जो कहा गया है, वैसा ही है। उसी को दर्शन कहते हैं। और ऐसी प्रतीति बैठ जाए तो फिर वह चारित्र में आता है। जब तक प्रतीति नहीं बैठती तब तक चारित्र में नहीं आता। प्रतीति को सम्यक् दर्शन कहा गया है और इस संसार की जो प्रतीति बैठी है, वह मिथ्यादर्शन है, वह विनाशी है। उसमें सुख है ही नहीं, माना हुआ सुख है। सच्चा सुख एक क्षणभर के लिए भी किसी भी जगह पर नहीं हो सकता। जो भी सुख है, वह कल्पित सुख है और फिर वह अंत वाला है। जबकि आत्म सुख निर्विकल्प है और परमानेन्ट है, सनातन है। अतः एक बार सुने तो, उस ज्ञान को सुनने के बाद प्रतीति बैठ जाए तो चारित्र में आ जाता है और मोक्ष हो जाता है।
प्रश्नकर्ता : वह जो वाक्य है न 'सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र्याणि