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[५.१] ज्ञान-दर्शन
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आत्मा का अनुभव : तप और चारित्र प्रश्नकर्ता : अब यह जो अनुभव है, क्या उसे चारित्र कहा जाएगा?
दादाश्री : नहीं, चारित्र नहीं, अनुभव का मतलब है... अनुभव उसे कहते हैं कि जो 'प्रतीति' पक्की हुई है कि यह सही है, जैसे-जैसे वह अनुभव पक्का होता जाएगा वैसे-वैसे ज्ञान तैयार होता जाएगा।
प्रश्नकर्ता : तो ऐसा कब कहा जाएगा कि चारित्र में आ गया?
दादाश्री : वह तो जब ज्ञान और दर्शन का फल आएगा तब चारित्र कहलाएगा। जितने प्रमाण (मात्रा) में अनुभव, उतने ही प्रमाण में वीतरागता और उतना ही चारित्र कहा जाएगा। तप के बिना चारित्र नहीं है। जितना तप करोगे, उतना ही चारित्र उत्पन्न होगा। तप को देखना और जानना, वही चारित्र है।
प्रश्नकर्ता : तो अभी दर्शन में आने के बाद उसे समझ में आ गया और उसे ज्ञान में यह पक्का हो गया कि 'मैं शुद्धात्मा हूँ', तो...
दादाश्री : उसे अनुभव होना कहते हैं। जितना अनुभव होता है, उतना ही उसे अंश ज्ञान होता है, इस प्रकार फिर सर्वांश ज्ञान होता है
और दर्शन तो सर्वांश ही दिया हुआ है। केवलदर्शन दिया है लेकिन जितना ज्ञान होता है उतना ही चारित्र में बर्तता है। तो जैसे-जैसे ज्ञान में आता जाएगा वैसे-वैसे फिर चारित्र बढ़ता जाएगा।
प्रश्नकर्ता : तो क्या ऐसा कह सकते हैं कि अनुभव के समय अंश ज्ञान परिणामित हुआ?
दादाश्री : जितना अनुभव हुआ, उतना ही ज्ञान में आया, ऐसा कहा जाएगा। अनुभव में नहीं आया तो उसे ज्ञान नहीं कहेंगे।
प्रश्नकर्ता : तो जितना अनुभव में आएगा उतने अंशों तक चारित्र में आएगा ही न?
दादाश्री : फिर चारित्र में आएगा। यहाँ पर जब ज्ञान देते हैं, तभी