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आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
समा सकता। राइट बिलीफ या किसी में भी नहीं समा सकता। 'सत्' इतना बड़ा है कि ये तीनों 'सत्' में समा जाएँगे लेकिन 'सत्' इनमें से किसी में भी नहीं समा सकता।
प्रश्नकर्ता : हमारे ज्ञान लेने के बाद इन तीनों में से कुछ भी प्राप्त होना बाकी नहीं रहता न हमारे लिए?
दादाश्री : अपना ज्ञान है ही ऐसा न कि तीनों को स्पर्श करता है। दर्शन-ज्ञान-चारित्र अर्थात् तीनों अंशों से जागृत हो जाता है लेकिन फिर सर्वांश तो धीरे-धीरे जैसे-जैसे आज्ञा पालन करेगा वैसे-वैसे यह होता जाएगा।
कोई आपसे पूछे कि आप भगवान हैं या भगवान के भक्त? तब ये चंदूभाई किसी से क्या कहेंगे, क्या जवाब देंगे?
प्रश्नकर्ता : व्यवहार से भक्त कहना पड़ेगा। दादाश्री : नहीं, लेकिन अगर आपसे ऐसा कहें कि भगवान हो, तो? प्रश्नकर्ता : ‘भगवान हूँ', ऐसा कहा जाएगा। दादाश्री : लेकिन किस प्रकार से? प्रश्नकर्ता : 'मैं शुद्धात्मा हूँ', इसलिए। दादाश्री : नहीं, लेकिन क्या पूरे भगवान हो? प्रश्नकर्ता : नर-नारायण। चंदूभाई नर और मैं नारायण।
दादाश्री : नहीं, ऐसा नहीं। बिलीफ में, श्रद्धा से 'मैं भगवान हूँ' मुझे श्रद्धा बैठ गई है। मैं बन नहीं गया हूँ, अभी तक श्रद्धा ही बैठी है। अभी तो जब हो जाएगा तब बताऊँगा। कहना, 'उसके बाद आना। आप जो माँगोगे वह दूंगा'। लेकिन तब अगर कोई कहे, 'तू भक्त नहीं है?' तब फिर क्या कहोगे?
प्रश्नकर्ता : भगवान और भक्त अलग हैं।