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[५.१] ज्ञान-दर्शन
दादाश्री : 'भक्त हूँ', ऐसा कहा जाएगा लेकिन व्यवहार से । निश्चय से अर्थात् वास्तव में 'मैं भगवान हूँ', ऐसी मुझे श्रद्धा बैठ गई है । 'मैं भगवान हूँ' ऐसी श्रद्धा बैठ जाने के बाद छूट कारा हो जाएगा। दर्शन का अर्थ यही है कि 'मैं भगवान हूँ' ऐसी श्रद्धा बैठ गई । उसे दर्शन कहते हैं और ज्ञान अर्थात् तेरे अनुभव में ऐसा है कि 'मैं भगवान हूँ' । दर्शन श्रद्धा में है और ज्ञान अनुभव में है।
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'कौन हूँ' ऐसा कहेगा ही न ! मैं श्रद्धा से भगवान हूँ, वह श्रद्धा है लेकिन, निश्चय से। वह सब निश्चय कहलाता है और व्यवहार से जो हो वह, ‘मैं चंदूभाई हूँ, इनका फॉलोअर हूँ, वकील हूँ' व्यवहार से ऐसा सब कहना है।
जो खुद को जाने, वह खुदा। लेकिन श्रद्धा से खुदा है, खुदा बन नहीं गया है। अभी ज्ञान में खुदा नहीं है, यदि ज्ञान में खुदा बन जाओगे तभी वह पूछने आएगा । आपको उससे कहना पड़ेगा कि ' भाई, ज्ञान से खुदा नहीं बना हूँ। ज्ञान से तो दादा खुदा हैं । वहाँ पर जाओ। मैं श्रद्धा से खुदा हूँ'। जो खुद को जाने वह खुदा । दूसरा खुदा कहाँ से ले आया? देखो न, खुदा और शिव के नाम से लड़ाइयाँ चल ही रही हैं न बाहर ?
निज प्रकृति के ज्ञाता - दृष्टा, वही चारित्र
अब अगर कोई पूछे, ‘इस ज्ञान के बाद भी चंदूभाई का वर्तन ऐसा क्यों है?' तब मैं कहूँगा कि 'भाई, इनके वर्तन की तरफ मत देखना क्योंकि इनकी बिलीफ अलग है और इनका वर्तन अलग है'। बिलीफ कुछ ओर ही प्रकार की है।
आपका वर्तन अलग है और बिलीफ में अलग है, ऐसा आपको अनुभव हुआ है न ? क्योंकि यह जो वर्तन है वह पहले की बिलीफ के आधार पर है और आज आपको नई बिलीफ मिली है अतः इसका जो वर्तन आएगा वह कुछ अलग ही प्रकार का आएगा। पहले बिलीफ में आता है उसके बाद वर्तन में आता है ।