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आप्तवाणी - १३ (उत्तरार्ध)
से दर्शन तो है ही। अब जैसे-जैसे अनुभव होता जाएगा, वही ज्ञान है । फिर रोज़ सत्संग में बैठते हो न तो ज्ञानी दशा के सभी पर्याय पूर्ण हो जाएँगे। अनुभव और दर्शन दोनों का गुणा होने पर चारित्र में आता है। दर्शन प्रकट होने के बाद जैसे-जैसे ज्ञान परिणामित होगा, वैसे-वैसे चारित्र उत्पन्न होगा अर्थात् जब ज्ञान और दर्शन का फल आएगा वैसे-वैसे अब भीतर चारित्र आता जाएगा। जितना तप करोगे उतना ही चारित्र उत्पन्न होगा! जब-जब चारित्र उत्पन्न होता है इसका मतलब तप पूर्ण हो चुका है। तप का मौका आए और तप न हो पाए तो वह चारित्र को बाहर रख देगा, खत्म कर देगा । तप होना वह भाग चारित्र में जाता है । जितनी - जितनी बातों में तप हुआ, उसी को चारित्र कहते हैं । तप पूर्ण होने के बाद ही चारित्र आता है
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क्रमिक मार्ग में ज्ञान के अनुसार, ज्ञान के अनुभव से प्रतीति प्राप्त होती है । हमारे लिए इस अक्रम मार्ग में प्रतीति के अनुसार जितना अनुभव होता है, उतना ही ज्ञान प्रकट होता है । जो प्रतीति हुई है, उसका अनुभव में आना, उसी को ज्ञान होना कहते हैं।
दर्शन किसका कहलाता है ?
प्रश्नकर्ता : यह जो दर्शन में आता है, वह दर्शन प्रज्ञा का गुण है या बुद्धि का ? दर्शन किसका कहलाएगा?
दादाश्री : वह तो ऐसी चीज़ है जो प्रज्ञा को भी दिखाती है । प्रज्ञा को भी दिखाने वाली चीज़ है। दर्शन अर्थात् यह प्रतीति कि हम आत्मा हैं। पहले उसकी प्रतीति बैठनी चाहिए और प्रतीति बैठने के बाद वह प्राप्त होता है।
प्रश्नकर्ता : वह प्रतीति किसे, प्रज्ञा को होती है ?
दादाश्री : प्रतीति अहंकार को होती है कि 'मैं वास्तव में यह नहीं हूँ, यह हूँ'। अहंकार को जो प्रतीति थी कि 'मैं चंदूभाई हूँ', तो वह प्रतीति वहाँ से उठकर यहाँ पर बैठ गई, उसी को दर्शन कहते हैं ।