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[४] ज्ञान-अज्ञान
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ज्ञान-विज्ञान के परिणाम मैं आत्मा को पूर्ण रूप से जानता हूँ। सर्वांश रूप से, एक-एक अंश को जानता हूँ और इस (माइक) का ज्ञान नहीं आता। इसे क्या कहेंगे? तो क्या यह (माइक का) ज्ञान आत्मज्ञान में नहीं समाता?
प्रश्नकर्ता : यह माइक्रोफोन तो जड़ है, अनात्म है।
दादाश्री : यह सब्जेक्टिव ज्ञान है और सारा सब्जेक्टिव ज्ञान, ओब्जेक्टिव होता है। आत्मा के लिए ओब्जेक्टिव। यह सब्जेक्टिव ज्ञान कहलाता है। वह जिस सब्जेक्ट में गहरा उतरा हो, उसे वह जानता है। अहंकारी ज्ञान और बुद्धि विलास। उसमें गहरे उतर जाए तो भी बुद्धि तो सभी में हैं लेकिन अगर इसमें गहरे उतर जाए तो, अगर इन्कम टैक्स एक्सपर्ट हो तो इन्कम टैक्स के हल ला देता है।
वर्ना भगवान तो विज्ञान स्वरूप हैं। भगवान अर्थात् विज्ञान स्वरूप।
प्रश्नकर्ता : 'भगवान विज्ञान स्वरूपी हैं, ज्ञान स्वरूपी नहीं हैं', इसका मतलब?
दादाश्री : हाँ ज्ञान स्वरूप नहीं हैं । ज्ञान उसे कहते हैं कि उस ज्ञान में जैसा बताया गया है, आप उस अनुसार करो तो वैसा होता है और विज्ञान में आपको करना नहीं पड़ता। वह अपने आप ही काम करता रहता है। हमने यह जो ज्ञान दिया है न, विज्ञान, वह तो अंदर अपने आप ही काम करता रहता है। यह आपको उल्टा घुमाता है कि 'अरे, ऐसा नहीं'।
विज्ञान अर्थात् दरअसल आत्मा ही और ज्ञान का मतलब आत्मा नहीं है।
प्रश्नकर्ता : ज्ञान का मतलब आत्मा नहीं है ? तो आत्मा को ज्ञान का पिंड कहा जाता है न दादा?
दादाश्री : हाँ ज्ञान का पिंड कहते हैं, वह ठीक है लेकिन वह उस भाषा में सही है लेकिन जब तक यह ज्ञान, विज्ञान नहीं बन जाता