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आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
दादाश्री : यों कोई संतपुरुष कहें कि, 'चोरी नहीं करनी चाहिए, ऐसा नहीं करना है, ऐसा नहीं करना है'। वे कहते हैं लेकिन उसके बाद वह ज्ञान काम नहीं करता। वह तो हमें करना पड़ता है। चोरी बंद करनी पड़ती है हमें। और जब तक बंद नहीं की जाए तब तक वह चोरी बंद नहीं होती। क्या वह ज्ञान चोरी बंद कर सकता है? उस ज्ञान को जानने से क्या चोरी बंद हो जाएगी?
प्रश्नकर्ता : नहीं।
दादाश्री : जबकि इसे तो जानने से ही परिवर्तन आ जाता है। क्या हो जाता है? विज्ञान, चेतन ज्ञान। रात-दिन सावधान करता रहता है और बंधने ही नहीं देता। कभी भी जब बंधन आता है, तो उसी समय वहाँ उसे घुमा देता है और कभी भी बंधने ही नहीं देता, बंधन में आने ही नहीं देता। बंधन में आने लगे तो उसे छुड़वाता है। जबकि वह तो ज्ञान ही नहीं है। यह जो पुस्तकों में लिखा है, वह तो किताबी ज्ञान, स्थूल ज्ञान है। वह अज्ञान है लेकिन यदि उस अज्ञान को भी मज़बूत कर लेगा तो ज्ञान का अधिकारी बन जाएगा लेकिन अज्ञान को भी कहाँ मज़बूत किया है?
हिंदुस्तान में ये जो ज्ञानी हैं न, वे अज्ञान के ज्ञानी कहलाते हैं जो कि शास्त्रों को जानते हैं। अरे भाई, रख न एक तरफ! उसे जानकर तुझमें क्या बदलाव आया? बदलाव आए तो वह सही है। लोहे में से सोना बन जाए तो सही है, वर्ना जैसा है वैसे का वैसा!
प्रश्नकर्ता : ऐसा कह सकते हैं कि ज्ञान अर्थात् आत्मा का ज्ञान और विज्ञान अर्थात् विशेष ज्ञान?
दादाश्री : नहीं। विज्ञान अर्थात् एब्सल्यूट ज्ञान। आत्मज्ञान होने तक का जो ज्ञान है, वह ज्ञान कहलाता है। आत्मज्ञान का स्पर्श होने तक ज्ञान कहलाता है और बाद में आगे जाकर उसे विज्ञान कहा जाता है। विज्ञान एब्सल्यूट है। अतः ज्ञान को करना पड़ता है और विज्ञान से अपने आप ही क्रिया होती रहती है।