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आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
दादाश्री : भेदज्ञान ही सर्वस्व ज्ञान है और वही केवलज्ञान का
द्वार है।
___ अतः बिल्कुल शुद्ध ज्ञान ही परमात्मा है, अन्य कुछ भी नहीं है। देहधारी रूप में, परमात्मा का ऐसा शरीर नहीं होता, वे निर्देही हैं। शुद्ध ज्ञान स्वरूप हैं, केवलज्ञान स्वरूप हैं, वे अन्य किसी स्वरूप में हैं ही नहीं। ज्ञानीपुरूष के पास बैठने से खुद को वह केवलज्ञान स्वरूप समझ में आता है। क्योंकि ज्ञानीपुरूष का आशय केवलज्ञान स्वरूप में रहने का ही है लेकिन इस काल के हिसाब से अखंडरूप से केवलज्ञान स्वरूप में नहीं रहा जा सकता। फिर भी उनका आशय कैसा रहता है कि निरंतर केवलज्ञान स्वरूप में रहना है क्योंकि वे 'खुद' 'केवलज्ञान स्वरूप' को जानते हैं। इस काल का इतना ज़बरदस्त इफेक्ट है कि केवलज्ञान स्वरूप में नहीं रहा जा सकता। जैसे कि अगर दो इंच के पाइप में ज़ोर से पानी आ रहा हो तो उस पर उँगली रखने जाएँ तो खिसक जाती है और आधे इंच के पाइप में से पानी आ रहा हो तो उँगली नहीं खिसकती। यों इस काल का इतना अधिक ज़ोर है कि ज्ञानीपुरूष को भी समतुला में नहीं रहने देता!
न हारे कभी वीतराग किसी चीज़ से आत्मा जब खुद के स्व-गुण को जानता है, स्व-स्वरूप को जानता है, स्व-ज्ञान को जानता है, तब अनइफेक्टिव हो जाता है।
चाहे कैसे भी रूप लेकर आए हुए हों, तरह-तरह के शब्दों से, अपने मन को समझकर बोलते रहें तब भी जो नहीं डिगता, उसे कहते हैं ज्ञान। ऐसे-ऐसे लोग आकर थक जाते हैं फिर भी अपना ज्ञान नहीं डिगता। वह जो ज्ञान है, वही परमात्मा है और जो डिग जाए, वह परमात्मा नहीं है, ज्ञान नहीं है।
ज्ञान तो असीम है लेकिन वीतरागों ने जिस ज्ञान को जीता, उससे आगे कोई ज्ञान है ही नहीं। जो किसी भी जगह पर न हारे, वे वीतराग कहलाते हैं। शायद कभी देह हार जाए, मन हार जाए, वाणी हार जाए लेकिन खुद नहीं हारते। वीतराग कैसे!