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[४] ज्ञान-अज्ञान
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अगर कैन्डल ही नहीं होगी तो उजाला दिखाई ही नहीं देगा न! अतः जहाँ पर उजाला दिखाई देता है, वे ज्ञानी हैं।
प्रश्नकर्ता : अच्छा। कई बार ऐसा प्रश्न होता है कि क्या ज्ञान प्राप्ति के लिए गुरु की ज़रूरत है?
दादाश्री : गुरु की ही ज़रूरत है। गुरु के बिना तो इस दुनिया में चल ही नहीं सकता। आप स्कूल में पढ़ने गए तभी से गुरु। यहाँ से स्टेशन जाना हो तो भी गुरु ढूँढना पड़ता है। पूछना नहीं पड़ता? जहाँजहाँ पूछना पड़ता है, वही गुरु।
प्रश्नकर्ता : तो क्या इंसान स्वयं प्राप्त नहीं कर सकता?
दादाश्री : नहीं। स्वयं कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता। इस दुनिया में किसी को ऐसा हुआ ही नहीं है और जो स्वयं सिद्ध हो चुके हैं, स्वयं बुद्ध, वे पिछले जन्मों में पूछ-पूछकर आए हैं अतः यह पूरा जगत् पूछपूछकर ही चल रहा है।
प्रश्नकर्ता : आप जो ज्ञान देते हैं, उससे तीर्थंकरों जैसा केवलज्ञान हो जाता है?
दादाश्री : सभी तीर्थंकरों का ज्ञान एक ही प्रकार का है। उसमें कोई अंतर नहीं है। भाषा में अंतर हो सकता है लेकिन ज्ञान एक ही प्रकार का है। अभी भी ज्ञान वही का वही है लेकिन भाषा में अंतर है, अनादिकाल से पुद्गल के प्रकाश और ज्ञान प्रकाश में फर्क रहता ही है। सभी ज्ञानियों का ज्ञान प्रकाश एक ही प्रकार का प्रकाश है और इस पुद्गल का प्रकाश, सभी लाइटों का प्रकाश एक ही प्रकार का। वे दोनों प्रकाश अलग-अलग स्वभाव के हैं।
उजाले में अंतर नहीं है। अतः ज्ञान तो वही का वही है। भगवान महावीर ऐसा नहीं कह सकते कि, 'यह मेरा ज्ञान है'। जो परंपरा से चला आया है, वह ज्ञान है। प्रकाश वही का वही है। लोग हम से पूछते हैं कि, '(यह ज्ञान) आपका मौलिक है?' तब मैंने कहा कि 'भाई नहीं!