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आप्तवाणी - १३ (उत्तरार्ध)
प्रश्नकर्ता : लेकिन अज्ञान के साथ चैतन्यता है ।
दादाश्री : नहीं। जिसे अज्ञान है उसे होता है । वह कहता है, 'मैं', अज्ञानी 'हूँ' तो 'उसे', ज्ञानी बना देते हैं!
प्रश्नकर्ता : ये ज्ञान किसे लेना होता है ?
दादाश्री : जो भटक गया है न, उसे ज्ञान लेने की ज़रूरत है। कौन भटक गया है, वह ढूँढ निकालेंगे न तो पता चल जाएगा हमें। भुगत कौन रहा है ? जो भटक गया है, वह । भुगतना अच्छा नहीं लगता इसलिए गुरु ढूँढता है कि 'भाई रास्ता बताओ न ! मुझे स्टेशन जाना है। मुझे जहाँ जाना है, वहाँ जाने का रास्ता नहीं मिल रहा है'। मिल गया या नहीं मिला आपको ? नहीं मिला ?
प्रश्नकर्ता : वास्तव में क्या अज्ञानता होती है ?
दादाश्री : वास्तव में अज्ञानता है ही नहीं । रियालिटी में रिलेटिव नहीं होता। यह क्यों पूछना पड़ा ? वास्तविक तो उसी को कहते हैं कि जहाँ पर कहीं कोई भी घोटाला न हो ।
प्रश्नकर्ता : तो फिर हम जो ये ज्ञान दे रहे हैं, वह किसे दे रहे हैं? किसलिए दे रहे हैं ।
दादाश्री : हाँ, यह जो ज्ञान दे रहे हैं न, तो जो भटक गया है, उसे दे रहे हैं। 'भाई ऐसे नहीं, ऐसे चल ।' वह उस स्टेशन पर पहुँचेगा तो फिर ज्ञान प्रकट हो जाएगा । वास्तविकता में आ जाएगा।
प्रश्नकर्ता : कौन भटक गया है ?
दादाश्री : वही, जो भुगतता है वही !
प्रश्नकर्ता : हम कहते हैं कि सब में आत्मा, परमात्मा हैं तो फिर क्या उसे ज्ञान प्राप्त करने या भटकने जैसा कुछ रहता है ?
दादाश्री : नहीं, उसे कोई ज़रूरत ही नहीं है लेकिन अगर वह यह कहे कि 'मुझे अब किसी भी चीज़ की ज़रूरत नहीं है', हमेशा ऐसा