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[४] ज्ञान-अज्ञान
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दादाश्री : यह सबकुछ किसमें से उत्पन्न हुआ है ? अर्थात् विभाविक आत्मा, प्रतिष्ठित आत्मा में से उत्पन्न हुआ है और वापस उसी में लय हो जाता है और उसी में से वापस उत्पन्न होता है और उसी में लय हो जाता है। इससे मूल आत्मा को कोई लेना-देना नहीं है। आत्मा की सिर्फ विभाविक दृष्टि उत्पन्न हो गई है। अत: बिलीफ बदल गई है। अन्य कुछ भी नहीं बदला है। ज्ञान भी नहीं बदला है और चारित्र भी नहीं बदला है। आत्मा का चारित्र एक क्षण भर के लिए भी नहीं बदलता। जब नर्क में जाता है तो वहाँ भी आत्मा अपने खुद के चारित्र में ही रहता है। और यह प्रतिष्ठित आत्मा खुद के नर्क के चारित्र में रहता है। प्रतिष्ठित
आत्मा अर्थात् प्रतिष्ठा की हुई चीज़। 'हम' मूर्ति में प्रतिष्ठा करते हैं न? फिर वह प्रतिष्ठा फल देती है। एक्ज़ेक्टनेस है।
स्वरूप का अज्ञान है इसका मतलब स्वरूप में कुछ इधर-उधर नहीं हो गया है। तेरा 'मैं 'पना बदल गया है। 'वह' चाहे किसी के भी धक्के से बदला या एनी वे बदला, लेकिन एक्ज़ेक्ट बदला है अतः जब वह 'मैं 'पना अपनी मूल जगह पर आ जाएगा तो काम हो जाएगा। इसमें कछ भी नहीं है। अस्तित्व तो है ही लेकिन तुझे वस्तुत्व का भान नहीं रहा। अतः अगर तेरा वह भान वापस आ जाए तो तू उसी रूप है। यदि आत्मा को फिर से सुधारना पड़ता तब तो किसी का भी नहीं हो पाता। जबकि लोग तो इसे ऐसा समझते हैं कि इसे सही कर दें। वे सब इसी दखल में पड़ गए हैं कि उसे स्थिर करेंगे तो उसकी चंचलता चली जाएगी।'
दोनों का आदि विज्ञान प्रश्नकर्ता : अब यह जो ज्ञान या अज्ञान है, इन दोनों का आदि क्या है?
दादाश्री : दोनों का आदि विज्ञान है। मूल आत्मा, विज्ञानमय आत्मा। उसमें से यह ज्ञान और अज्ञान, धूप और छाँव, दोनों शुरू हो गए। उसे साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स मिलते गए इसलिए