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[४] ज्ञान-अज्ञान
दादाश्री : दोनों का । ज्ञानी दोनों को जानता है । स्व पर प्रकाशक । स्व अर्थात् ज्ञान को जानता है और पर अर्थात् अज्ञान को जानता है, खुद स्व-पर प्रकाशक है इसलिए इसमें कोई कमी नहीं रहती । और अज्ञानी सिर्फ पर को ही प्रकाशित करता है, वह स्व को प्रकाशित नहीं करता ।
ज्ञान सहज है, सोचा हुआ नहीं
सोचने से, जो-जो कर्म सोचकर किए जाते हैं, उनसे अज्ञान उत्पन्न होता है और निर्विचार से ज्ञान उत्पन्न होता है । वह सहज होता है ! सोचे हुए को ज्ञान नहीं कहते । विचार अर्थात् वह सारा मृत ज्ञान कहलाता है और यह जो सहज है, वह विज्ञान कहलाता है । वह चेतन होता है, कार्यकारी होता है और सोचा हुआ सारा ही अज्ञान कहलाता है, ज्ञान नहीं कहलाता और वह क्रियाकारी नहीं होता, परिणामित नहीं होता । फिर कहते हैं कि ‘मैं जानता हूँ लेकिन हो नहीं पाता, मैं जानता हूँ लेकिन हो नहीं पाता'। अपने आप गाता रहता है । आपने ऐसा कुछ सुना है किसी व्यक्ति को ऐसा कहते हुए ?
प्रश्नकर्ता : कई लोग ऐसा कहते हैं ।
दादाश्री : सभी कहते हैं, यही कहते हैं । जाना हुआ अवश्य होना ही चाहिए और यदि नहीं होता है तो समझना कि इसने जाना ही नहीं । और सोचा हुआ ज्ञान, ज्ञान नहीं कहलाता। वह तो जड़ ज्ञान कहलाता है। जो जड़ विचारों में से उत्पन्न होता है, वह तो जड़ है । विचार ही
जड़ हैं।
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प्रश्नकर्ता : ज्ञान सहज रूप से आता है या सहज रूप से होता है, तो उसका क्या कारण है ?
दादाश्री : उसने पहले पिछले जन्मों का जो सारा माल भरा हुआ है न, वह सब समझ - समझकर भरा है । वह सहज रूप से उत्पन्न होता है। समझकर और जानकर अंदर भरा है । सोचकर जाना हुआ काम में नहीं आता। अगर समझकर भरा हुआ हो तो काम आता है।