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आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
लिए वापस दंड मिलता है। उसे देखने और जानने आना पड़ेगा न! वापस खाने जाना पड़ेगा और वापस बोने जाना पड़ेगा। निरी उपाधि, उपाधि
और उपाधि (बाहर से आने वाला दुःख)। आधि-व्याधि-उपाधि से मुक्त ऐसा आत्मा, निरंतर समाधि स्वरूप है!
इसमें 'खुद' कौन है? 'खुद' खुद की अज्ञानता से बंधता है। 'खुद' खुद के ज्ञान से ही छूट जाएगा। आत्मा तो ज्ञान वाला ही है लेकिन अगर 'यह' ज्ञान वाला बन जाए तो दोनों अलग हो जाएँगे।
प्रश्नकर्ता : तो आप 'इसे' ज्ञान वाला बनाते हैं ? दादाश्री : हाँ, तो और किसे? आत्मा तो आज भी ज्ञानी ही है न! प्रश्नकर्ता : तो क्या आवरण चले जाते हैं ? ।
दादाश्री : आवरण चले जाते हैं बस। ये जो आवरण हैं, वे चले जाते हैं, तो व्यक्त हो जाता है। जो अव्यक्त है वह व्यक्त हो जाता है।
प्रश्नकर्ता : तो आप जब ज्ञान देते हैं तो ज्ञानी कौन बनता है ?
दादाश्री : जो अज्ञानी है, वही ज्ञानी बनता है। आत्मा तो ज्ञानी ही है।
प्रश्नकर्ता : अज्ञानी कौन है?
दादाश्री : यह जो बंधा हुआ है और जो कहता है कि 'यह मैं हूँ और यह मेरा है, मुझे दुःख है', वह अज्ञानी है।
प्रश्नकर्ता : तो दूसरी भाषा में ऐसा कहा जाएगा न कि आप अशुद्ध चेतन को चेतन बनाते हैं?
दादाश्री : हाँ, अशुद्ध चेतन को शुद्ध बना देते हैं। जो अशुद्ध चेतन है, वह मूल चेतन नहीं है, वह पावर चेतन है। हम उसे शुद्ध बना देते हैं। वह जब संपूर्ण शुद्ध हो जाता है तो दोनों अलग हो जाते हैं।