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आप्तवाणी - १३ (उत्तरार्ध)
श्रद्धा-दर्शन- अनुभव - वर्तन
यह तो आपने सुना है, बस इतना ही। थोड़े ही वह वर्तन (आचरण) में आ जाएगा ? श्रद्धा बैठ गई है लेकिन वर्तन में नहीं आता न? आएगा ही नहीं न ?
प्रश्नकर्ता : दादा, वर्तन में आए तब वह कैसा होता है ?
दादाश्री : वह अलग तरह का होता है ।
प्रश्नकर्ता : अब आज हमने सुना, श्रद्धा बैठी, अंदर फिट हो गया और ऐसा लगा कि हंड्रेड परसेन्ट यही बात करेक्ट है ।
दादाश्री : ऐसा लगता ज़रूर है लेकिन वह वर्तन में नहीं आता । वह निरंतर ध्यान में नहीं रहता ।
प्रश्नकर्ता : हाँ, निरंतर ध्यान में नहीं रहता ।
दादाश्री : वह निरंतर वर्तन में रहेगा तो निरंतर ध्यान में रहेगा । जैसा वर्तन में होता है वैसा ध्यान में रहता है । अतः यह वर्तन में नहीं रहता न? धीरे-धीरे, बूँद-बूँद करके बढ़ता जाता है। लेकिन जानेगा तभी बूँद-बूँद करके बढ़ेगा, रास्ते को जानेगा तो । सभी उसी रास्ते पर जा रहे हैं, लेकिन अंत में वे मार खाते हैं । साफ करने जाते हैं, शुद्ध करने जाते हैं लेकिन आज जो कुछ भी करने जाते हैं, एक बार उसी रूप हो जाते हैं। इसे समझ रहे हो क्या ?
प्रश्नकर्ता : आपने वह जो ठपका (उलाहना, डपटना) देने को कहा था न, तो मुझे दो दिनों तक अंदर ठपके का ही चलता रहा। पूरे दिन वही चलता रहा इसलिए फिर मुझे एक तरफ दूसरी तरह का सफोकेशन होने लगा कि यह तो उसी रूप हो रहे हैं। खुद ठपका देने वाला बन गया।
दादाश्री : ऐसा नहीं होना चाहिए ।
प्रश्नकर्ता : लेकिन ऐसा हो गया था ।