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[३] मैला करे वह भी पुद्गल, साफ करे वह भी पुद्गल
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दादाश्री : अपना खुद का नहीं रहा लेकिन यह पिछली गुनहगारी बाकी रही न!
प्रश्नकर्ता : उसे भोग लेंगे, उसमें हर्ज नहीं है। अगर उदय में ऐसा कुछ होगा तो भोग लेंगे।
दादाश्री : नहीं। सिर्फ भोग लेने से ही नहीं चलेगा। भोगना है, उसे तो आप भोग लोगे लेकिन फिर अगर उसका निकाल नहीं होगा, तो उसका निबेड़ा नहीं आएगा। तब वे क्या कहते हैं कि हर एक पुद्गल को देखकर' जाने दो कि आप ज्ञायक हो और वह पुद्गल ज्ञेय है। यदि आप ज्ञायक-ज्ञेय का संबंध रखोगे, तब वे ज्ञेय शुद्ध होकर चले जाएँगे। ज्ञेय अर्थात् पुद्गल। जो अस्वच्छ हैं, वे स्वच्छ होकर चले जाएँगे। अतः जितने-जितने स्वच्छ होकर चले गए, उतनी फाइलों का निकाल हो गया। शुद्ध करने से परमाणु विश्रसा हो जाते हैं। संवर (कर्म का चार्ज होना बंद हो जाना) रहता है, बंध नहीं होता। हालांकि विश्रसा तो जीवमात्र में हो ही रहा है लेकिन उनमें बंध डालकर विश्रसा हो रहा है, जबकि यहाँ पर बिना बंध पड़े संवरपूर्वक विश्रसा होता है।
साबुन भी खुद और कपड़ा भी खुद प्रश्नकर्ता : उस समय वह ऐसा तो सोचेगा न कि अभी तक ऐसा ही मानकर चले थे कि यह जो पुद्गल है वही 'मैं हूँ', वह भी मेरी भूल है। 'भाई, अब मैं भूल सुधार रहा हूँ। और तेरे साथ ही संयोग हुआ है तो मेहरबानी करके अब तू संयोग छोड़ दे!' इसके अलावा और क्या है?
दादाश्री : नहीं, नहीं। वह क्या छोड़ेगा? बेचारा पावर चेतन! किस प्रकार से कितना कर पाएगा? वह कैसे छोड़ सकेगा? हमारे देखने से वह छूट ही जाएगा। एक-एक धागा छूटता जाएगा। उसमें भी अगर ऐसे लाख धागे होंगे, तो वे लाख भी छूटते जाएँगे और फिर से नहीं बंधेगे। हम मुक्त हो जाएँगे। धागा धागे के घर गया, हम अपने घर गए! उसमें फिर क्या बाकी रहा?