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आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
वीतरागता! अतः साक्षीपन नहीं है लेकिन ज्ञातापन है। वीतरागता अर्थात् ज्ञायकपन, ज्ञायक!
फिर भी रहा फर्क चौदस और पूनम में अत: दुनिया में जो कभी भी देखा न गया हो ऐसा प्रेम उत्पन्न हुआ है क्योंकि ऐसी जो जगह थी जहाँ पर प्रेम उत्पन्न होता है, वह संपूर्ण वीतराग थे। अतः वहाँ पर प्रेम दिखाई नहीं देता। हम कच्चे रह गए, अतः प्रेम रहा लेकिन संपूर्ण वीतरागता नहीं आई।
प्रश्नकर्ता : आपने कहा है कि 'हम प्रेमस्वरूप हो चुके हैं, लेकिन संपूर्ण वीतरागता उत्पन्न नहीं हुई'। इसे जरा समझना था।
दादाश्री : प्रेम का मतलब क्या है ? किंचित्मात्र भी किसी की तरफ ज़रा सा भी भाव न बिगड़े, उसे कहते हैं प्रेम। अर्थात् संपूर्ण वीतरागता को ही प्रेम कहते हैं।
प्रश्नकर्ता : तो प्रेम का स्थान कहाँ पर है? यहाँ पर कौन सी स्थिति में प्रेम कहलाएगा?
दादाश्री : प्रेम तो, जितना वीतराग होता है उतना ही प्रेम उत्पन्न होता है। संपूर्ण वीतराग को संपूर्ण प्रेम! अतः आप सभी वितद्वेष तो हो ही चुके हो, और अब जैसे-जैसे हर एक बात में वीतराग होते जाओगे, वैसे-वैसे प्रेम उत्पन्न होता जाएगा।
प्रश्नकर्ता : तो आपने जो अभी यह कहा कि 'हमारा, यह प्रेम कहलाता है लेकिन वीतरागता नहीं आई है', वह क्या है ?
दादाश्री : वीतरागता अर्थात् यह हमारा प्रेम है, यह प्रेम यों दिखाई देता है जबकि वीतरागों का प्रेम दिखाई नहीं देता। लेकिन वास्तविक प्रेम तो उनका ही कहा जाएगा जबकि हमारा प्रेम लोगों को दिखाई देता है लेकिन यह वास्तविक प्रेम नहीं है। एक्ज़ेक्टली जिसे प्रेम कहा जाता है न, वह यह नहीं है। एक्जेक्टली तो, जब संपूर्ण वीतरागता होगी, तभी वास्तविक प्रेम आएगा जबकि हमारी तो अभी चौदस है, पूनम नहीं है।