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[२.५] वीतरागता
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नहीं गया जब साढ़े ग्यारह से कम हुआ हो। इसलिए हमें भी कोई आश्चर्य नहीं होता न! और फिर रात को तीन या साढ़े तीन बजे उठते हैं। उसके बाद डेढ़ घंटे तक पद्मासन लगाकर बैठते हैं और फॉरेन वगैरह सभी जगह घूमते हैं। फिर हम कुछ देर बाद वापस सो जाते हैं। साढ़े पाँच, छः बजने पर आधे घंटे के लिए सो जाते हैं। शरीर पीड़ा नहीं देता, कुछ भी नहीं करता। ये पैर दबाने वाले कहते हैं कि हमें लाभ हो रहा है, तब मैं कहता हूँ कि 'दबाते रहो न! हमें कोई परेशानी नहीं है'। रोज़ दबाने से आदत पड़ जाती है लेकिन हमें आदत वगैरह कुछ नहीं पड़ती, कुछ भी नहीं। औरों को आदत पड़ जाती है। यह शरीर वैसा ही हो जाता है।
गुरुपूनम के दिन पूर्ण अद्वैतभाव में प्रश्नकर्ता : आप सत्संग करते हैं और गुरुपूर्णिमा के दिन दर्शन देते हैं तो उन दोनों में अंतर है क्या?
दादाश्री : बहुत अंतर है। इसे तो ऐसा कहा जाएगा कि बाहर आ गए हैं। वह गुरुपूर्णिमा का दर्शन तो बहुत ही, ओहोहो! वह तो पूर्ण दर्शन कहलाता है। कोई एक बार भी दर्शन कर गया तो बहुत हो गया। उस दिन हम 'आओ चंदूभाई! आओ फलाने भाई!' उसमें नहीं पड़ते। पूर्ण भाव में रहते हैं और जबकि यहाँ पर, अन्य किसी दिन तो हम बुलाते हैं, पहचानते भी हैं। वहाँ पर तो हम पहचानते भी नहीं और बुलाते भी नहीं हैं।
प्रश्नकर्ता : व्यवहार में।
दादाश्री : उस समय अद्वैतभाव में रहते हैं और अभी द्वैत में रहना पड़ता है।
प्रश्नकर्ता : वीतरागता और साक्षीपने में क्या फर्क है?
दादाश्री : अहंकार (के माध्यम) से देखे और साक्षी रहे, वह साक्षीपन है और आत्मा (के माध्यम) से देखे तो ज्ञाता-दृष्टापन है।