________________
[२.५] वीतरागता
१७९
जाता है। हमारी तो खटपट, बैठा-बैठाकर बातें करते रहते हैं।
प्रश्नकर्ता : रातों को जागकर भी!
दादाश्री : हाँ, रात को जागकर भी। यह भाई 30 साल से आश्रम में जा रहे थे तो फिर मैंने समझाया कि 'तू जो कर रहा है वह गलत नहीं है लेकिन यदि आत्मा जानना हो तो वह इसमें नहीं है'। आत्मा कहाँ से लाएँगे लोग? लोगों के बस की बात ही नहीं है न यह।
जगत् का कल्याण होकर ही रहेगा हम यह जो खटपट करते हैं वह, 'इधर आओ न आपको मोक्ष देंगे', इस भाई की फाइल के साथ झंझट हो जाती है तो वह खत्म कर देते हैं।
प्रश्नकर्ता : हम उसे ऐसे कहते हैं कि सत्संग में ही रहो।
दादाश्री : हाँ। हमें यह सारी खटपट इसीलिए करनी पड़ती है न? खुद को कुछ भी नहीं चाहिए, उसी को कहते हैं वीतराग! खटपट क्या है ? तो वह यह है कि सामने वाले को मेरे जैसी कुछ (प्राप्ति) हो जाए, वही भावना।
महावीर भगवान खटपटिया वीतराग नहीं थे, जबकि मैं तुम्हें बुलाता हूँ कि 'आना, आपके सर्वस्व दुःख चले जाएँगे'। महावीर भगवान को ऐसा कुछ नहीं था। संपूर्ण वीतराग! कोई दखल ही नहीं न! दखल नहीं, खटपट नहीं। जिसे इस वर्ल्ड में कुछ भी नहीं चाहिए। वर्ल्ड में कोई भी चीज़ नहीं चाहिए। शुद्ध सोना दिया जाए फिर भी नहीं चाहिए। स्त्रियों का विचार तक मुझे नहीं आता। जो पुरुष बंधन मुक्त हो चुके हैं, उन्हें फिर क्या चाहिए? लेकिन सिर्फ यही एक चीज़ कि जगत् का कल्याण होना चाहिए और होगा ही और इस जगत् का नया ही रूप होगा। नया ही तरीका, नया ही रूप।
प्रश्नकर्ता : अगर इतनी अधिक आस्था होगी तभी यह काम हो सकेगा। इतना बड़ा आयोजन !