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[२.५] वीतरागता
ऐसा कुछ है ही नहीं । सुगंध हो या दुर्गंध हो, कुदरत के घर दोनों एक सरीखे हैं। वहाँ पर एक सरीखे ही हैं और यहाँ पर एक सरीखे नहीं हैं । वहाँ पर एक समान किस प्रकार से हैं ? तो कहते हैं, सबकुछ ज्ञेय के रूप में है।
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प्रश्नकर्ता : तो अगर ज्ञाता - दृष्टा हो जाएँ तो ज्ञेयों के प्रति आसानी से उदासीनता रहेगी ?
दादाश्री : हाँ! वह तो स्वभाव से उदासीनता ही। उसका अन्य कोई गुण है ही नहीं! उदासीन ही है न! अहंकार सहित वीतरागता रहे तो वह है उदासीनता ! उसे वीतरागता नहीं कहते क्योंकि अभी तक अहंकार का पॉइज़न है और यह बिना पॉइज़न का है इसलिए इसे वीतरागता कहते हैं
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अब क्रमिक मार्ग में इसे उदासीनता कहते हैं। अंतिम अवतार में वीतराग । जबकि यहाँ पर तो ज्ञान मिलते ही वीतराग । सिर्फ समझना ही है, करना कुछ भी नहीं है ।
हैं न?
दादा देखें विशालता से और अनुभव करें ऐश्वर्य
प्रश्नकर्ता : कई बार ऐसा होता है कि सभी इन्द्रियाँ वीतराग ही
दादाश्री : मतलब ?
प्रश्नकर्ता : वीतराग नहीं, लेकिन उन्हें राग-द्वेष नहीं होते कोई । हमने आँखों से किसी चीज़ को देखा हो तो आँखों का गुण तो उन चीज़ों को दिखाने का ही है न ?
दादाश्री : दिखाती हैं, बस । हम यहाँ पर एक दूरबीन में से देखें, तो वह दूरबीन बेचारी क्या करे ? उस दूरबीन में से देखने वाले को राग है इसीलिए उस तरफ राग है । अर्थात् अगर आपमें अज्ञान है तो सभी कुछ उल्टा दिखाई देगा । इन्द्रिय बेचारी क्या करे ? मुझे लोग कहते हैं