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[२.५] वीतरागता
१६१ भी वीतरागता हो तो उसे यह कहा जाएगा कि राग-द्वेष की सर्वांशता गई! एक अंश भी वीतरागता, अंदर राग-द्वेष के रस को सर्वांशरूप से खत्म कर देती है। उसमें राग-द्वेष दिखाई ज़रूर देते हैं, लेकिन अंदर रस (रुचि) नहीं रहता। उस वीतरागता को तो देखो।
प्रश्नकर्ता : आप जैसी वीतरागता महात्माओं में कब और कैसे उतरेगी?
दादाश्री : जैसे-जैसे मेरे टच में रहेंगे वैसे-वैसे। इसे रटकर नहीं सीखना है, देखकर सीखना है।
लोग आँखों के सामने देखते हैं। लोग, जीवमात्र आँखों में क्यों देखते हैं? तो कहते हैं, 'आँखों में सबकुछ पढ़ा जा सकता है। भाव! क्या भाव है, वह सारा ही पढ़ा जा सकता है। अतः लोग समझ जाते हैं कि, 'इस भाई को घर में मत घुसने देना। इसकी आँखों के भाव अच्छे नहीं हैं'। इसी प्रकार ज्ञानी की आँखों में वीतरागता दिखाई देती है, किसी भी प्रकार का राग या द्वेष कुछ भी नहीं दिखाई देता। उनकी आँखों में साँप नहीं लोटते किसी प्रकार के। लक्ष्मी की भीख नहीं होती, ऐसा कुछ भी नहीं होता, सिर्फ वीतरागता होती है। देखते-देखते वह अपने में भी आ जाती है। और कुछ नहीं है इसमें।।
यह तो मैं व्यापार की बात कर रहा हूँ कि एक बार मैंने एक व्यक्ति से कहा कि, 'इसमें करने का है क्या? इस न के बराबर चीज़ में तूने इतना टाइम बिगाड़ दिया'। तो कहने लगा, लेकिन मुझे किसी ने करके नहीं बताया। नहीं तो मैं जल्दी से कर लेता'। तब एक दिन मैंने करके बता दिया, तो दूसरे दिन उसने वह करके बता दिया। वर्ना दो महीनों से नहीं हो रहा था। तो उस काम की जो कला थी, वह दिखा दी। वह भी कला सीख गया और वह भी करने लगा।
अर्थात् इसमें यों थिअरेटिकल से कुछ नहीं बदलेगा। प्रैक्टिकली की ज़रूरत है। थिअरेटिकल तो सिर्फ जानने के लिए ही है। प्रैक्टिकली का मतलब क्या है ? प्रैक्टिकल में तो ज्ञानीपुरुष को देखने से, उनके टच