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आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
किसी का लाइसेन्स नहीं है, महावीर भगवान का या कृष्ण भगवान का। जो वैसा बन सके, उसी के बाप का! जो वीतराग बन सके और निर्भय बन सके, वही भगवान!
प्रश्नकर्ता : अतः भगवान गुण है, वह कोई व्यक्ति नहीं है। भगवान विशेषण ही है?
दादाश्री : अंतिम कक्षा है इस पुद्गल की। इस पुद्गल की अंतिम कक्षा जब भगवान वाली होती है तब आत्मा की अंतिम कक्षा परमात्मा होती है। वे आत्मा को भगवान नहीं कहते। भगवान तो पुद्गल की अंतिम दशा है। अतः हम मना करते हैं कि हम भगवान नहीं हैं। यदि हम अपने आपको भगवान कहेंगे तो इसका मतलब अंदर आत्मा परमात्मा हो गया। और परमात्मा आत्मा खटपट नहीं करते। हम तो खटपट करते हैं कि 'चंदूभाई आना' खुद अपने आपके, व्यक्तिगत कारण से नहीं, आपके लिए। मैंने क्या तय किया है कि 'मैंने जो सुख पाया है, वही सुख दूसरे भी पाएँ'। यह तो मुझे गर्ज़ है कि ये लोग सुख पाएँ, मोक्ष में जाएँ, जबकि परमात्मा को गर्ज नहीं होती किसी भी तरह की।
प्रश्नकर्ता : लेकिन दादा आपको जो यह गर्ज़ है, वह तो निष्काम करुणा है न?
दादाश्री : निष्काम करुणा है लेकिन वह करुणा भी गर्ज है न! इस पद के आने के बाद वह अंतिम पद आएगा। इस पद के आने के बाद जो अंतिम पद आएगा, वह ऐसा आएगा कि जगत् खुश हो जाएगा। वह तीर्थंकर पद है। लोगों के कल्याण के लिए ही जीते हैं वे। खुद के लिए नहीं जीते। कुछ समझ में आया मैं क्या कहना चाहता हूँ?
प्रश्नकर्ता : हाँ। दादा को जब ज्ञान हुआ था तब जगत् कल्याण करने के लिए किसने कहा था? कौन सी शक्ति ने कहा था?
दादाश्री : किसी ने नहीं कहा था। पहले से ही भावना थी कि यह जगत् ऐसा नहीं रहना चाहिए, कल्याण होना चाहिए। ऐसे कारण