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[२४] प्रशस्त राग
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दादाश्री : तो लोभ ही है न ?
प्रश्नकर्ता : लोभ ! ठीक है।
दादाश्री : कपट वाला लोभ नहीं है। असल में जो राग होता है उसमें कपट और लोभ दोनों साथ में हैं । यह प्रशस्त राग तो सिर्फ लोभ ही है।
प्रश्नकर्ता : मोक्ष का लोभ ?
दादाश्री : लोभ ।
प्रश्नकर्ता : इन महात्माओं को जगत् कल्याण की भावना होती रहती है, अंदर जो ऐसा रहता है वह क्या है ?
दादाश्री : इसका अर्थ सिर्फ इतना ही है कि जिसका खुद का कल्याण हो जाता है, उसी को ऐसा विचार आता है। वर्ना किसी को ऐसा विचार आया ही नहीं इस दुनिया में । औरों को तो ऐसा विचार आएगा ही कैसे ? अरे, उसके घर में ही बेहद झंझट होती है ! सिर्फ कृपालुदेव को आए थे ऐसे विचार, अपने साधु-संन्यासियों को भी नहीं । क्योंकि वे लोग अपने शिष्यों से ही परेशान हो चुके हैं। क्या करें ?
प्रश्नकर्ता : यह जो जगत् कल्याण का भाव होता है, वह भी लोभ कहलाता है ?
दादाश्री : हाँ, वह भी लोभ है न । एक प्रकार का राग है न, प्रशस्त राग। जिसका खुद का कल्याण हो चुका है, वह ऐसा सब खोजता है। अब ये लड़के, सभी ब्रह्मचारी पूरे दिन यही करते हैं । ओहोहो.... ऐसे लोग तो हैं ही नहीं। लोग आफरीन हो जाते हैं उन्हें देखकर क्योंकि ये वे हैं जिन्हें कुछ भी नहीं चाहिए, जिन्हें कुछ भी लाभ नहीं उठाना !
प्रश्नकर्ता : दादा ! तो अभी अगर इन महात्माओं को ऐसा लोभ है तो वह अच्छा है न ? यह प्रशस्त राग वाला लोभ ?
दादाश्री : यह लोभ करने से, बाकी सभी में से आपकी वृत्तियाँ उठ जाएँगी और वृत्तियाँ एक ही जगह पर चिपक जाएँगी। दादा पर