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[२.३] वीतद्वेष
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प्रश्नकर्ता : पहले दिन नहीं, उसी क्षण खत्म हो जाता है।
दादाश्री : अत: वह उसी क्षण जितेन्द्रिय जिन बन जाता है। सभी इन्द्रियों को जीत लिया है इसलिए उसी क्षण जितेन्द्रिय जिन बन जाता है अर्थात् वीतद्वेष बन जाता है । सभी इन्द्रियों को जीत लेता है ।
प्रश्नकर्ता : लेकिन द्वेष तो डिस्चार्ज भाव से रहेगा या नहीं ? दादाश्री : नहीं ।
प्रश्नकर्ता : नहीं रहेगा । यों अनुभव से ऐसा दिखाई देता है कि जिन्हें हम अपना दुश्मन समझते थे उनके प्रति दुश्मनी नहीं रहती ।
दादाश्री : रहती ही नहीं । वीतद्वेष हो जाता है ।
प्रश्नकर्ता : अपना द्वेष तो चला जाता है लेकिन सामने वाले का द्वेष भी चला जाए, उसके लिए क्या करना चाहिए ?
दादाश्री : प्रतिक्रमण करते रहना चाहिए । द्वेष में से राग उत्पन्न हुआ। दोनों के बीच कारण- कार्य का संबंध है । अतः द्वेष नहीं होता । इसलिए सभी कारण बंद हो गए, वीतद्वेष !
प्रश्नकर्ता : फिर दादा, राग तो रहता है । स्त्री है, बच्चे हैं, ऑफिस है, नौकरी-धंधा है तो फिर राग तो रहा न ? क्या वह राग डिस्चार्ज कहलाएगा ?
दादाश्री : वह राग डिस्चार्ज के रूप में है । वास्तव में चार्ज के रूप में राग कहाँ पर रहता है, जब तक यह भान रहे कि 'मैं चंदूभाई हूँ', तब वास्तव में राग है। लेकिन ऐसा भान हुआ कि 'मैं शुद्धात्मा हूँ', तो उस क्षण से वास्तविक राग नहीं रहता, डिस्चार्ज के रूप में रहता है।
जिसका अटैक गया वह भगवान बन गया
धर्म तो किसे कहते हैं ? किसी भी संयोगों में राग-द्वेष न हो, उसी को धर्म कहते हैं। भले ही राग हो लेकिन द्वेष तो होना ही नहीं चाहिए । जबकि वे तो (जिन्होंने ज्ञान नहीं लिया) फुफकारते हैं ।