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[2.4]
प्रशस्त राग
जो कभी भी भूला न जा सके, वह प्रशस्त राग
पहले वीतद्वेष बन जाते हैं उसके बाद वीतराग बनते हैं। वीतद्वेष उत्पन्न होने के बाद सिर्फ राग बचता है। राग बाद में ही जाता है, ऐसा उसका स्वभाव है क्योंकि जब आखिर में पुद्गल में से जब राग निकल जाता है तो वह ज्ञानीपुरुष पर आ जाता है। लेकिन वह राग भी कैसा? प्रशस्त राग। जिन ज्ञानी ने ज्ञान दिया उन ज्ञानी पर राग या फिर उन्होंने शास्त्र बताए हों तो शास्त्रों पर राग! अतः आत्मा से संबंधित जो साधन हैं, उन पर जो राग रहता है, वह प्रशस्त राग है। और वह राग धीरेधीरे कम होते-होते अंत में जब खत्म हो जाता है तब वीतराग बन जाता है। जो राग ज्ञानीपुरुष और बाकी सब पर आ जाता है, अंत में वह भी निकालना तो पड़ेगा ही न कभी न कभी?
प्रश्नकर्ता : तो ऐसा नहीं है दादा कि जहाँ राग होता है वहाँ पर द्वेष होता ही है?
दादाश्री : वह अगर पौद्गलिक राग होगा तो द्वेष होगा। इसे प्रशस्त राग कहा जाता है, इसमें उसे द्वेष नहीं रहता। प्रशस्त राग, वह द्वेष वाला नहीं होता। यह राग अद्भुत राग है और यही राग मोक्ष दिलवाता है। प्रशस्त राग तो ज्ञानीपुरुष के प्रति होता है।
प्रश्नकर्ता : वह राग नहीं अपितु प्रेम है।
दादाश्री : वह प्रेम भी प्रशस्त राग कहलाता है। वह यदि हो गया तो काम हो जाएगा।