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[२.३] वीतद्वेष
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'मैं चंदू हूँ' में राग, तो स्वरूप में द्वेष
'मैं चंदूलाल हूँ', वही आरोपित जगह पर राग है और बाकी सभी जगह पर द्वेष है यानी कि स्वरूप के प्रति द्वेष है, एक तरफ राग हो तो उसके दूसरी तरफ सामने वाले कोने पर द्वेष रहता ही है। हम स्वरूप का भान करवाते हैं, शुद्धात्मा का लक्ष (जागृति) दे देते हैं इसलिए उसी क्षण वे वीतद्वेष स्थिति में आ जाता है और जैसे-जैसे आगे बढ़ता है वैसे-वैसे वीतराग होता जाता है। वीतराग अर्थात् मूल जगह का, स्वरूप का ज्ञान-दर्शन ।
बने वीतद्वेष ज्ञान मिलते ही
प्रश्नकर्ता : ये जो वीतराग हैं, उन्हें राग नहीं होता लेकिन आपके प्रति हमें राग है।
दादाश्री : मेरे प्रति राग रखने में हर्ज नहीं है ।
प्रश्नकर्ता : इसलिए यहाँ आने का मन हो जाता है।
दादाश्री : मेरे प्रति तो राग रहेगा ही।
प्रश्नकर्ता : तो वीतराग का मतलब क्या है ?
दादाश्री : वीतराग अर्थात् वास्तव में देखा जाए तो... ऐसा कहना चाहिए कि वीतराग-द्वेष ! लेकिन वीतराग क्यों कहते हैं ? तो वह इसलिए कि उन्हें जब आत्मा की जागृति होती है, सम्यक् दर्शन होता है, क्षायक सम्यक् दर्शन, उस समय वे वीतद्वेष तो हो ही जाते हैं । हम जब आपको ज्ञान देते हैं न, तब वीतद्वेष अर्थात् आपमें से द्वेष नाम की चीज़ निकल जाती है।
द्वेष चला जाता है। अतः क्रोध होने पर वह आपको अच्छा नहीं लगता। किसी के प्रति तिरस्कार होता है तो वह अच्छा नहीं लगता। वह सब, जिसे द्वेष कहा जाता है, जिसे तिरस्कार कहते हैं, वह नहीं होता । अतः वीतद्वेष तो हो चुके हो।